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महा शिवरात्री पर्व ऋषि दयानन्द के बोध दिवस के रूप मे आर्य जगत में विख्यात है ।
अब से लगभग 187वर्ष पूर्व टंकारा के शिवालय में एक 13-14 वर्षीय बालक को यह बोध हुआ कि वह वास्तनिक शिव की खोज करेंगे।
महर्षि दयानन्द जिनका वाल्यकाल का नाम पूर्वाश्रम में ‘मूलशंकर’ था उन्हे शिवरात्री को ही मूर्तिपूजा के प्रति विरक्ति के भाव जागृत हुवे

थियोसोफिस्ट पत्रिका मे1879- 80ं मे प्रकाशित स्वामी दयानन्द का ‘अपना जन्म चरित्र ,

मैं स्वामी दयानन्द सरस्वती संक्षेप से अपना जन्म चरित्र लिखता हूँ।
संवत 1881 के वर्ष में मेरा जन्म दक्षिण गुजरात प्रान्त, देश काठियावाड़ का मजोकठा देश मोर्वी [मोरबी] का राज्य, औदीच्य ब्राह्मण के घर में हुआ था।
यहां अपना, पिता का [और] निज निवास स्थान के प्रसिद्ध नाम इसलिये मैं नहीं लिखता कि जो माता-पिता आदि जीते हों मेरे पास आवें तो इस सुधार के कार्य में विघ्न हो, क्योंकि मुझको उनकी सेवा करना, उनके साथ घूमने में श्रम और धन आदि का व्यय कराना नहीं चाहता।
मैंने पांचवे वर्ष में देवनागरी अक्षर पढ़ने को आरम्भ किया था। और मुझको कुल की रीति की शिक्षा भी माता-पिता आदि किया करते थे, बहुत से धर्मशास्त्रादि के श्लोक और सूत्रादि भी कण्ठस्थ कराया करते थे।
फिर आठवें वर्ष में मेरा यज्ञोपवीत कराके गायत्री संध्या और उसकी क्रिया सिखा दी गयी थी। और मुझको यजुर्वेद की संहिता का आरम्भ कराके उसमें प्रथम रुद्राध्याय पढ़ाया गया था, और मेरे कुल में शैव मत था, उसी की शिक्षा भी किया करते थे।
और पिता आदि लोग यह भी कहा करते थे कि – पार्थिव-पूजन अर्थात मट्टी का लिंग बना के तूँ पूजा कर। और माता [निषेध] किया करती थी कि – यह प्रातःकाल भोजन कर लेता है, इससे पूजा नहीं हो सकेगी। पिताजी हठ किया करते थे कि – पूजा अवश्य करनी चाहिये, क्योंकि कुल की रीति है।
तथा कुछ-कुछ व्याकरण का विषय और वेदों का पाठ मात्र भी मुझको पढ़ाया करते थे।
पिताजी अपने साथ मुझको जहां-तहां मंदिर और मेल-मिलापों में ले जाया करते और यह भी कहा करते थे कि शिव की उपासना सबसे श्रेष्ठ है।
इस प्रकार 14 वर्ष की अवस्था के आरम्भ तक यजुर्वेद की संहिता सम्पूर्ण [हो गई] और कुछ अन्य वेदों का भी पाठ पूर्ण हो गया था, और शब्द रूपावली आदि व्याकरण के ग्रन्थ भी पूरे हो गये थे।
पिताजी जहाँ-जहाँ शिवपुराण आदि की कथा होती थी, वहां मुझको पास बैठा कर सुनाया करते थे।
और घर में भिक्षा की जीविका नहीं थी, किन्तु जिमीदारी [जमींदारी] और लेन-देन से जीविका के प्रबन्ध करके सब काम चलाते थे।
और मेरे पिता ने माता के मने करने पर भी पार्थिव पूजन का आरम्भ करा दिया था।
जब शिवरात्रि आई तब त्रयोदशी के दिन कथा का माहात्म्य सुना के शिवरात्रि के व्रत करने का निश्चय करा दिया। परन्तु माता ने मने भी किया कि इससे व्रत नहीं रहा जायगा, तथापि पिताजी ने व्रत का आरम्भ करा दिया।
और जब चतुर्दशी की शाम हुई, तब बड़े-बड़े वस्ती के रईस अपने पुत्रों के सहित मन्दिरों में जागरण करने को गये। वहां मैं भी अपने पिता के साथ गया और प्रथम प्रहर की पूजा भी करी। दूसरे प्रहर की पूजा करके पूजारि लोग बाहर निकल के सो गये।
मैंने प्रथम से सुन रखा था कि – सोने से शिवरात्रि का फल नहीं होता है। इसलिये अपनी आंखों में जल के छींटे मार के जागता रहा और पिता भी सो गये तब मुझको शंका हुई कि – जिसकी मैंने कथा सुनी थी, वही यह महादेव है वा अन्य कोई; क्योंकि वह तो मनुष्य के माफक [समान] एक देवता है। वह बैल पर चढ़ता, चलता-फिरता, खाता-पीता, त्रिशूल हाथ में रखता, डमरू बजाता, वर और शाप देता और कैलाश का मालिक है, इत्यादि प्रकार का महादेव कथा में सुना था।
तब पिताजी को जगा के मैंने पूछा कि – यह कथा का महादेव है या कोई दूसरा? तब पिता ने कहा कि – क्यों पूछता है? तब मैंने कहा कि – कथा का महादेव तो चेतन है वह अपने ऊपर चूहों को क्यों चढ़ने देगा और इसके ऊपर तो चूहे फिरते हैं। तब पिताजी ने कहा कि – कैलाश पर जो महादेव रहते हैं उनकी मूर्ति बना और आवाहन करके पूजा किया करते हैं। अब इस कलियुग में शिव का साक्षात् दर्शन नहीं होता। इसलिये पाषाणादि की मूर्ति बना के उन महादेव की भावना रख कर पूजन करने से कैलाश का महादेव प्रसन्न हो जाता है।
ऐसा सुन के मेरे मन में भ्रम हो गया कि – इनमें कुछ गड़बड़ अवश्य है। और भूख भी बहुत लग रही थी। पिता से पूछा कि – मैं घर को जाता हूँ। तब उन्होंने कहा कि – सिपाही को साथ लेके चला जा, परन्तु भोजन कदाचित् मत करना। मैंने घर में जाकर माता से कहा कि – मुझको भूख लगी है। माता ने कुछ मिठाई आदि दिया, उसको खाकर एक बजे पर सो गया।
पिताजी प्रातःकाल रात्रि के भोजन को सुनके बहुत गुस्से हुये कि – तैने बहुत बुरा काम किया। तब मैने पिता से कहा कि – यह कथा का महादेव नहीं है, इसकी पूजा मैं क्यों करूँ? मन में तो श्रद्धा नहीं रही, परन्तु ऊपर के मन पिताजी से कहा कि – मुझको पढ़ने से अवकाश नहीं मिलता कि मैं पूजा कर सकूं। तथा माता और चाचा आदि ने भी पिता को समझाया, इस कारण पिता भी शान्त हो गये कि – अच्छी बात है, पढ़ने दो।

महर्षि दयानन्द के मन मे जो विरक्ति के भाव जागृत हुने उन्ही भावों काआश्रय लेकर स्वामी जी ने गृह त्याग किया , देश की गुलामी गरीबी भुखमरी आध्यात्मिक दरिद्रता , पाखण्डवाद सामाजिक भेदभाव कुरीतियों में महर्षि दयानन्द को अन्दर से आन्दोलित कर दिया था , वे 1857 की क्रान्ति के सूत्रधार बने , आधुनिक भारत की जड़ता को दूर करने हेतु पाखण्ड़ पर प्रहार व वास्तविक आध्यात्म का मण्डन तथा सामाजिक मनभेद पर पर कड़ा प्रहार किया । सत्यार्थ प्रकाश ऋगवेदादि भाष्य भूमिका सहित कई ग्रन्थ लिखे भारत मे चेतना के नये द्वार खोले आजादी ,की प्रेरणा दी ,राजाओं को संगठित किया । आर्य समाज की स्थापना की । आर्य समाज ने देश को संगठित किया । आजादी की लड़ाई लड़ी ।

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