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क्या पत्रकारों द्वारा लिखे गये किसी आशंका पर आधारित लेख या समाचार को को प्रमाण माना जा सकता है ? । इस बिषय मे आम जन मानस में कई भ्रान्तियां है ।. यदि कोई घटना घटित हुई है । तो घटना के घटित होने की खबर पत्रकार अपने सूत्र से पता कर सकते है उसे प्रकाशित कर सकते है । जैसे जांच अधिकारी किसी घटना के साक्ष्य जुटाने में खबरी खास का उल्लेख करते है । खबरी खास का न्यायालय मे नाम बताना जरूरी नही है । उसी प्रकार पत्रकार को भी सूत्र बताने की आवश्यकता नही है । पत्रकार सीधे -सीधे किसी आरोप की पुष्ठि नही कर सकते। पर खबर को विश्वसनीय बनाने के लिये प्रमाण प्रस्तुत कर सकते है । जांच एजेन्सियों को अपने तौर तरीके से प्रमाण जुटाने होते है वे मीडिया मे प्रकाशित सामग्री को साक्ष्य की तरह प्रस्तुत तो नही कर सकते पर उस दायरे मे जांच करना या ना करना जांच अधिकारी पर निर्भर करता है। इस बिषय मे मीडिया जनपक्ष के हवाले से सुझाव दे सकता है । इन दिनों बिविध प्रकरणो मे मीडिया एक ही खबर को महिनों तक दिखा- दिखा कर आरोपी की छवि बिगाड देता है यदि वह बरी हो गया तो मीडियां मै उस खबर का संज्ञान नही लिया जाता अधिवकिताओं की राय है कि यह एक गलत परम्परा है । जांच एजेन्सियों से प्रमाणो की पुष्ठि के लिये न्यायालय के सामने रखे गये तत्थ्यो पर भी अधिवक्ता संवयं से सत्यता जांचने का प्रयास करते है। सामान्यत: खबर यदि किसी अपराध से जुडी है तो पत्रकार अपने सूत्रो का हवाला देकर खबर प्रकाशित कर सकते है । प्रभावित पक्ष खबर के आधार पक न्याय तो मांग सकता है पर खबर अन्तिम सबूत नही होता । इसकी पुष्ठि व गलत साबित करने के लिये न्यायालय को कुछ और तत्थ्यो की जरूरत होती है ।जिसें अधिवक्तागण न्यायालय के सामने रखते है एक प्रकार से हम कह सकते है कि पत्रकार न्याय प्रक्रिया का पहला हिस्सा है ,तो अधिवक्ता अभियोगी व अभियुक्त अन्तिम ,। अत; भारतीय अधिवक्ता दिवस पर अधिवक्ताओं की राय है कि मीडिया को रिपोर्टर सूचना व प्रमाण संकलनकर्ता तो बनना चाहिये पर न्यायालय का काम न्याय पालिका पर ही छोड़ देना चाहिये ।

इस बीच जब से इलेक्ट्रोनिक मीडि़या प्रचलन में आ रहा है मीडिया किसी भी आऱोपी को जांच एजेन्सियों की जांच सामने आने से पहले ही , मुजरिम करार दे देता है । समाज मे एक ऐसा माहौल हन जाता है कि अभियुकित यदि निर्दोश भी है तो न्याय पाने से बंचित हो जाता है उसके कई साल मीडिया ट्रायल फिर कोर्ट के ट्रायस मे ही समाप्त हो जाते है । फिर पता लगता है कि वह निर्दोश था । इतमे लाले मे उसके साथ दे कुछ भी हुवा बरी होने की स्तिथि में वह ब्यवस्थाजनित दण्ड का भागीगार बो जाका है तीन दिसम्बर को अधिवक्ता दिवस के अवसर पर देश के जनपक्षीय अधिवक्ता तथा न्यायिक अधिकारियो को इस पर जरूर बिचार तरना चाहिये

भारत समेत विश्व भर मे पत्रकारों के लिये कोई घोषित आचार संहिता नही है ना ही उनके अधिकार व तरितब्य स्पस्ठ है । यद्यपि गलत सूचना प्रकाशित करने पर पत्रकारो के खिलाफ समय – समय पर न्यायालयों मे वाद दर्द होते होते है पर इसमे अभियपर्त एवं अभियोगी का भी समय बर्बाद होता है सवाल यह है कि क्या किसी प्रतिष्ठित ब्यक्ति के मामले मे मीडिया ट्रायल कर जांच एजेन्सियो को भटकाया जा सकता है ।

किसान आन्दोलन मे जिस प्रकार मीडिया के एक तबके ने किसानों को राष्ट्रद्रोही खालिस्तानी बिपक्षी भटके हुवे लोग ना जाने क्या कहा इन खबरो की पुष्ठि ना तो मीडिया ने की ना ही सरकार ने यह छवि खराब करने की कोशिस थी इस प्रकार के समाचारो से मीडिया की विश्वसनीयता पर ही आँच आती है ।.

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