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लगभग एक शताब्दी से अधिक लम्बे संघर्ष के बाद नसीब हुवा उत्तराखण्ड बन गया उत्तर प्रेश का औपनिवेश

-सबसे पहले स1815 मे ही सिगौली शन्धि मे ही अग्रेज सरकार को इस आधार पर स्वीकार किया गया कि वह पहाड के परम्परागत कानूनू प्राविधानो मे कोई पपरिवर्तन नही करेगे एक प्रकार से यह अलग अस्तित्व की स्वीकारोक्ति थी । 1897 में जब रानी बिक्टोरिया भारत आई तो पृथक राज्य की मांग उनके समक्ष रखी समक्ष कुमाऊं को प्रांत का दर्जा देने की मांग रखी गई ऎजिसमे केवल टिहरी गढवाल को छोडकर शेष गढवाल शामिल था ।। नौ नवंबर 2000 को अलग राज्य के रूप में अस्तित्व में आए उत्तराखंड राज्य में पृथक राज्य की मांग एक सदी से भी अधिक पुरानी थी। ऐतिहासिक दस्तावेजों के अनुसार सर्वप्रथम जून 1897 में रानी विक्टोरिया को शर्तें याद दिलाते हुए तत्कालीन समय मे अल्मोडा निवासी हरी दत्त पांडे, ज्याला दत्त जोशी, रायबहादुर बद्री दत्त जोशी, रायबहादुर दुर्गा दत्त जोशी (जज)व गोपाल दत्त जोशी द्वारा इंग्लेंड की महारानी विक्टोरिया को भेजे गए पत्र में कहा गया था कि अंग्रेजों ने इस क्षेत्र को जीता नहीं था, वरन 1815 में स्वयं अपनी मर्जी से अपने आप को ब्रिटिश साम्राज्य के संरक्षण में रखा था, इसलिए उनकी वफादारी के बदले इसे पृथक प्रान्त का दर्जा प्रदान कर दिया जाय.

सिगौली सन्धि मे शामिल था प्रथक कानून व प्रशासनिक भू भाग का दर्जा । क्षेत्रीय जनता ने अंग्रेजों को 1815 में सिगौली की संधि के साथ इसी शर्त के साथ अपनी जमीन पर पांव रखने दिये थे कि वह उनके परंपरागत कानूनों के साथ उन्हें अलग इकाई के रूप में रखेंगे।

ब्रिटिश कुमाऊं के पहले कमिश्नर बने ई गार्डनर के बीच 27 अप्रैल 1815 को हुई सिगौली की संधि में इस भूभाग को अलग प्रशासनिक अधिकार दिये जाने की शर्त रखी गई थी, जिसे अलग पटवारी व्यवस्था जैसे कुछ प्रावधानों के साथ कुछ हद तक मानते हुए अंग्रेजी दौर से ही प्रशासनिक व्यवस्था उनके हक-हकूकों पर पाबंदी लगाती रही।सितम्बर 1916 में, बाद में स्वतंत्र भारत के दूसरे गृह मंत्री बने गोविन्द बल्लभ पंत, ‘कुमाऊं केसरी’ बद्रीदत्त पांडे, हरगोविंद पंत, इंद्र लाल साह, मोहन सिंह दड़मवाल, चन्द्र लाल साह, प्रेम बल्लभ पांडे, भोला दत्त पांडे व लक्ष्मीदत्त शास्त्री आदि के द्वारा ‘कुमाऊं परिषद्’ की स्थापना की गई, जो कि 1926 में स्थानीय मुद्दों को राष्ट्रीय स्तर पर उठाने के लिए कांग्रेस में समाहित हो गई। 27 नवम्बर 1923 को संयुक्त प्रांत के गवर्नर को ज्ञापन देकर पूर्व की तरह अलग इकाई बनाए रखने की मांग की। आगे वर्ष 1940 में कांग्रेस के हल्द्वानी सम्मेलन में बद्री दत्त पांडे ने पर्वतीय क्षेत्र को विशेष दर्जा तथा अनुसूया प्रसाद बहुगुणा ने कुमाऊं-गढ़वाल को पृथक इकाई के रूप में गठन करने की मांगें रखीं। 1952 में सीपीआई नेता कामरेड पीसी जोशी ने अलग राज्य की मांग उठाई। 1954 में विधान परिषद के सदस्य इंद्र सिंह नयाल (वर्तमान कुमाऊं आयुक्त अवनेंद्र सिंह नयाल के पिता) ने यूपी के मुख्यमंत्री बने गोविंद बल्लभ पंत के समक्ष विधान परिषद में पर्वतीय क्षेत्र के लिए पृथक विकास योजना बनाने का प्रस्ताव रखा, जिसके फलस्वरूप 1955 में फजल अली आयोग ने पर्वतीय क्षेत्र को अलग राज्य के रूप में गठित करने की संस्तुति की। वर्ष 1973 से यूपी में उत्तराखंडवासियों को कुछ दिलासा देने को पर्वतीय विकास विभाग का गठन कर दिया गया, लेकिन बात नहीं बनी। 1979 मेमउत्तराखण्ड संघर्ष वाहिनी ने नये भारत के विये नया उत्तराखण्ड रा नारा दिया कुछ समय के बादस 24 जुलाई 1979 को पृथक राज्य के गठन के लिए मसूरी में अंतरराष्ट्रीय स्तर के भौतिकी वैज्ञानिक एवं गांधीवादी विचारक कुमाऊं विवि के कुलपति डा. डीडी पंत की अगुवाई में हुई बुद्धिजीवियों की बैठक में उत्तराखंड क्रांति दल नाम से राजनीतिक दल का गठन किया गया। नवम्बर 1987 में पृथक राज्य के गठन के लिए नई दिल्ली में प्रदर्शन हुआ और राष्ट्रपति को ज्ञापन भेजकर हरिद्वार को भी प्रस्तावित राज्य में सम्मिलित करने की मांग की गई।

1994 में यूपी में अन्य पिछड़ी जातियों को 27 फीसद आरक्षण देने के विरोध में सुलगे आरक्षण आंदोलन की चिनगारी राज्य आंदोलन की मशाल बन गया । एक सितम्बर 1994 का दिन राज्य आंदोलन का पहला शहीदी दिवस साबित हुआ। इस दिन खटीमा में शांतिपूर्वक आंदोलन कर रहे आंदोलनकारियों पर यूपी पुलिस द्वारा चलाई गई गोलियों से भगवान सिंह सिरौला, प्रताप सिंह, सलीम अहमद, गोपीचन्द, धर्मानन्द भट्ट, परमजीत सिंह, रामपाल शहीद हुए, वहीं दो अक्टूबर 1994 को रामपुर तिराहा व मुजफ्फरनगर के काले कांडों के विरोध में अगले दिन यानी तीन अक्टूबर को हो रहे प्रदर्शन के दौरान नैनीताल में एक 33 वर्षीय होटलकर्मी प्रताप सिंह शहीद हुए।

उत्तराखण्ड आन्दोलन के इतिहास मे दो अक्टूबर के कुछ अलग मायने हैं।उत्तराखंड आंदोलन के दौरान इस दिन छह शहीद, 60 से अधिक हुए थे घायल, कई महिलाओं को गंवानी पड़ी थी । गाधी जी का जन्म दिन दुनिया में अहिंसा दिवस के रूप मे मनाया जाता है उसी दिन लाल बहादुर शास्त्री की भी जयन्ती होती है । उत्तराखंड राज्य इससे इतर इस दिन को ‘काले दिन” के रूप में मनाता है। इस दिन से उत्तराखंड वासियों की बेहद काली व डरावनी यादें जुड़ी हुई हैं। उत्तराखंड आंदोलन के दौरान इस दिन छह आंदोलनकारी शहीद हुए थे, जबकि 60 से अधिक घायल हुए थे, और कई महिलाओं को अपनी अस्मत गंवानी पड़ी थी।उत्तराखंड राज्य आंदोलन के दौरान दो अक्टूबर 1994 को राज्य आंदोलनकारियों ने दिल्ली कूच का ऐलान किया था। लाल किले के पीछे स्थित पुराने किले के मैदान में राज्य आंदोलनकारियों को आमंत्रित किया गया था। सभा में केंद्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस के वरिष्ठ नेता राजेश पायलट सहित कई वरिष्ठ नेताओं के आने और सरकार की ओर से उत्तराखंड राज्य का गठन किए जाने की घोषणा होने की चर्चा थी। इसलिए पूरे प्रदेश से उत्तराखंडी बसों के जत्थों के जत्थों में एक अक्टूबर को रवाना हो गए थे। लेकिन यूपी की मुलायम सिंह के नेतृत्व वाली सपा सरकार इससे खार खाई थी। उनकी कोशिश थी-उत्तराखंडी दिल्ली न पहुंच पाएं। इसी कोशिश में कुमाऊं से दिल्ली जा रहे आंदोलनकारियों को मुरादाबाद और गढ़वाल की ओर से आ रहे आंदोलनकारियों को मुजफ्फरनगर से पहले पड़ने वाले नारसन चौराहे व रामपुर तिराहे पर तलाशी के बहाने रोका गया। इसी दौरान यूपी की रक्षक कही जाने वाली पुलिस बेकाबू हो कर मानो भक्षक बन गई और फिर वह हुआ, जिसे उत्तराखंड के इतिहास में सबसे काले दिन और जलियावाला कांड की संज्ञा दी जाती है। इस घटना में देहरादून के नेहरू कालोनी के रविंद्र रावत उर्फ पोलू, भाववाला के सतेंद्र चौहान, बद्रीपुर निवासी गिरीश भद्री, अजबपुर निवासी राजेश लखेड़ा, ऋषिकेश के सूर्यप्रकाश थपलियाल और उखीमठ रुद्रप्रयाग निवासी अशोक केशिव शहीद हुए जबकि पांच दर्जन से अधिक लोग घायल हुए और अनेक महिलाओं की अस्मत पर हमला हुआ।
एक सितंबर से ही हिंसक हो उठा था उत्तराखंड आंदोलन
नैनीताल। उल्लेखनीय है कि दो अक्टूबर से पूर्व पृथक उत्तराखण्ड राज्य का आन्दोलन पहली बार एक सितम्बर 1994 को तब हिंसक हो उठा था, जब खटीमा में स्थानीय लोग राज्य की मांग पर शांतिपूर्वक जुलूस निकाल रहे थे। जलियांवाला बाग की घटना से भी अधिक वीभत्स कृत्य करते हुए तत्कालीन यूपी की अपनी सरकार ने केवल घंटे भर के जुलूस के दौरान जल्दबाजी और गैरजिम्मेदाराना तरीके से जुलूस पर गोलियां चला दीं, जिसमें सर्वधर्म के प्रतीक प्रताप सिंह, भुवन सिंह, सलीम और परमजीत सिंह शहीद हो गए। यहीं नहीं उनकी लाशें भी सम्भवतया इतिहास में पहली बार परिजनों को सौंपने की बजाय पुलिस ने ‘बुक’ कर दीं। यह राज्य आन्दोलन का पहला शहीदी दिवस था। इसके ठीक एक दिन बाद मसूरी में यही कहानी दोहराई गई, जिसमें महिला आन्दोलनकारियों हंसा धनाई व बेलमती चौहान के अलावा अन्य चार लोग राम सिंह बंगारी, धनपत सिंह, मदन मोहन ममंगई तथा बलबीर सिंह शहीद हुए। एक पुलिस अधिकारी उमा शंकर त्रिपाठी को भी जान गंवानी पड़ी। इससे यहां नैनीताल में भी आन्दोलन उग्र हो उठा। यहां प्रतिदिन शाम को आन्दोलनात्मक गतिविधियों को ‘नैनीताल बुलेटिन” जारी होने लगा। नैनीताल में दो अक्टूबर के कांड के प्रतिरोध में तीन अक्टूबर 1994 को विरोध जता रहे लोगों पर रैपिड एक्शन चढ़ बैठी, और एक होटल कर्मी प्रताप सिंह बेमौत मारा गया। उनका शहीदी दिवस यहां हर वर्ष तीन अक्टूबर को चिड़ियाघर रोड स्थित शहीद स्थल में मनाया जाता है। कई बलिदानो व संघर्षो के बाद पूर्व प्रधानमंन्त्री एच डी देविगौडा ने 15 अगस्त को लाल किले की प्रचीर से पृथक राज्ृ की घोषणा की ॊरकार ज्यादा दिन नही चल सकी । उसके बाद भा ज पा की अटल बिहारी बाजपेई की सरकार ने 9 नवम्बर 2000 को पृथक राज्य की घोषणा की पृथक राज्य गठन के बिधेयक मे कई संलोधन लगाकर राज्य को एक तरह से उत्तर प्रदेश ऎका औपनिवेशिक राज्य ही कहा जा सकता है । भा ज पा की पहली सरकार नित्यानन्द स्वामी के नेतृत्व मे बनी पर राज्य को मजबूत औद्योगिक दर्जा देने के लिये एन डी तिवारी को हमेशा याद किया जायेगा ।

गैरसैण राजधानी की मांग
देश में उत्तराखण्ड ऐसा अभागा प्रदेश है, जिसकी स्थायी राजधानी राज्य बनने के 15 साल बाद भी तय नहीं हो पाई है। वर्ष 1994 में मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व वाली उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा उत्तराखंड राज्य गठन हेतु रमा शंकर कौशिक समिति का गठन किया गया और इस समिति ने उत्तराखंड राज्य का समर्थन करते हुए 5 मई 1994 को कुमाऊँ एवं गढ़वाल के मध्य स्थित गैरसैंण (चंद्रनगर) नामक स्थान पर राजधानी बनाने की संस्तुति दी। उस समिति की रिपोर्ट के मुताबिक गैरसैंण को 60.21 फीसदी अंक मिले थे, जबकि नैनीताल को 3.40, देहरादून को 2.88, रामनगर-कालागढ़ को 9.95, श्रीनगर गढ़वाल को 3.40, अल्मोड़ा को 2.09, नरेंद्रनगर को 0.79, हल्द्वानी को 1.05, काशीपुर को 1.31, बैजनाथ-ग्वालदम को 0.79, हरिद्वार को 0.52, गौचर को 0.26, पौड़ी को 0.26, रानीखेत-द्वाराहाट को 0.52 फीसद अंक मिलने के साथ ही किसी केंद्रीय स्थल को 7.25 फीसद अन्य को 0.79 प्रतिशत ने अपनी सहमति दी थी। गैरसैंण के साथ ही केंद्रीय स्थल के नाम पर राजधानी बनाने के पक्षधर लोग 68.85 फीसद थे। कौशिक समिति की संस्तुति पर 24 अगस्त 1994 को उत्तर प्रदेश विधानसभा ने उत्तराखंड राज्य बनाने का प्रस्ताव पारित कर दिया। आगे उत्तराखंड की नित्यानंद स्वामी की अगुवाई में बनी प्रथम सरकार ने राजधानी गैरसैण (चंद्रनगर) के नाम पर एक राजनैतिक षडयंत्र के तहत दीक्षित आयोग नाम की एक समिति गठित कर हमारे ऊपर थोप दिया और दीक्षित आयोग ने 11 बार अपना कार्यकाल बढ़ने के बाद वही रिपोर्ट दी जिसकी वहां की जनता को पहले ही आशंका थी। असल में दीक्षित आयोग का गठन ही गैरसैण को राजधानी न बनाने के लिए किया गया था। इसके साथ ही राष्ट्रीय दलों ने गैरसैण का विरोध शुरू किया। गैरसैंण के विरोध में वे लोग हैं, जो न आन्दोलन में थे और न उनकी कही आन्दोलन में भूमिका रही थी। राज्य के लिए 42 लोगों की शहादत और राजधानी गैरसैण (चंद्रनगर) के लिए बाबा मोहन उत्तराखंडी 38 दिनों तक आमरण अनशन करने के बाद बाबा मोहन उत्तराखंडी शहीद हुए थे। और छात्र कठैत ने भी शहादत दी थी। गैरसैंण केवल स्थान हीं नहीं अपितु उत्तराखण्ड में लोकशाही के प्रतीक का भी केन्द्र बिन्दू है, जबकि राज्य के एक कोने पर स्थित देहरादून उत्तराखण्डियों के लिए लखनऊ से बदतर स्तिथि मे है। गैरसैण स्थाई राजधानी के लिये राज्य गठन के बाद जहां बाबा ममोहन त्तराखण्डी ने अपनी सहादत दी । वही उत्तराखण्ड लोकवाहिनी के नेता शमशेर सिह बिष्ट ,दयाकृष्ण काण्डपाल , पूरन चन्द्र तिवारी , राजीव लोचन साह , हरीश मेहता , अमिनुर्रहमान , दिनेश जोशी सोमेश्वर, मनीष सुन्दरियाल , नारायण सिह तथा पद्म श्री शेखर पाठक के साथ ही उत्तराखण्ड महिला मन्च की संयोजिका कमला पन्त , पुष्पा चौहान , डा उमा भट्ट , बसन्ती पाठक , पद्मा गुप्ता , जब्बर सिंह पावेल बसन्ती बिष्ट सहित सैकडो आन्दोलन कारियों ने गैरसैण से देहरादून तक पैदल यात्रायें की तथा देहरादून मेे अनशन किया।महिलाओ ने अभी भी आन्दोलन जारी है । बर्तमान मे एडवोकेट गोविन्द भण्डारी व दयाकॊष्ण काण्डपाल की गैरसैण मे आज से तीन वर्ष पूर्व बिधान सभा सत्र के दौरान धरे मेनबैठे प्रवीण सिह की गिरफतारी के बाद गठित राजधानी आन्दोलन संघर्ष समिति गैरसैण से नारायण सिह रावत , के नेतृत्व मे कार्य कर रही है । प्रवीण सिह काशी इन दिनो पाजधानी आन्दोलन मे साथियों के साथ नंगे पांव गोपेश्वर से पदयात्रा कर रहे हैं। यद्यपि राज्य सरकार इसे ग्रीष्म कालीन राजधानी घोषित कर चुकी है किन्तु इस राजधानी मे बिशेष सत्रों को छोडकर कोई भी अधिकारी नही बैठता ।

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