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भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में ही नही बल्कि सनातन धर्म के लिये अपने प्राण न्योछावर कर देने वाले स्वामी श्रद्धानन्द का 23 मार्च को शहीद दिवस देश भर में मनाया गया ।स्वामी दयानंद के अनन्य भक्त स्वामी श्रद्धानन्द नास्तिक से आस्तिक बने तो उसी के लिये जीवन समर्पित कर दिया ,यदि महर्षी दयानन्द ना होते तो स्वामी श्रद्धानन्द भी नही होते वे कहते थे कि महर्षि दयानन्द के कारण ही उनका धर्म पर विश्वास लौटा

वह ऐसा दौर था जब काशी विश्वनाथ मंदिर के कपाट सिर्फ रीवा की रानी के लिए खोले जाते और साधारण जनता के लिए बंद कर दिये जाते यही नही उस दौर मे जब व मुंशीराम ने एक पादरी के व्यभिचार करने का दृश्य देखा मुंशीराम जी का धर्म से विश्वास उठ गया था ,। और वे बुरी संगत में पड़ गए थे। किन्तु स्वामी दयानंद सरस्वती के साथ बरेली में हुए सत्संग ने उन्हें जीवन का अनमोल आनंद दिया, जिसे उन्होंने सारे संसार को वितरित किया।स्वामी दयानंद सरस्वती से हुई एक भेंट और उनकी पत्नी के पतिव्रत धर्म तथा निश्छल निष्कपट प्रेम व सेवा भाव ने उनके जीवन को पवित्र बना दिया वे एक राष्ट्रभक्त व धर्म निष्ठ सन्यासी के रूप मे लोक प्रसिद्ध हो गये । वह ऐसा दौर था जब स्त्रियों का घर से बाहर निकलना भी कठिन था तब उन्होंने स्त्री शिक्षा के लिये दरवाजे खोंले ,उस समय शूद्रों को छुवाछूत का शिकार होना पड़ता था। उन्होंने शुद्धि सभा बनाकर शूद्रों को पढने के लिये प्रेरित किया । समाज सुधारक के रूप में उनके जीवन का अवलोकन करें तो पाते हैं कि उन्होंने अपने जीवन मे इस दिशा में विविध कार्य किये

गुरूकुल बनाने की प्रेरणा:-


स्वयं की बेटी अमृत कला को जब उन्होंने ‘ईस-ईसा बोल, तेरा क्या लगेगा मोल’ गाते सुना तो मन ब्यथित हुआ सोचने लगे एक दिन तो सनातन धर्म ही बिलुप्त हो जायेगा, उन्होंने हरिद्वार के कांगड़ी गाव मे गुरुकुल खोलने का विचार किया और घर-घर जाकर चंदा इकट्ठा कर ‘गुरुकुल कांगडी विश्वविद्यालय’ की स्थापना की अपने बेटे हरीश्चंद्र और इंद्र को सबसे पहले भर्ती करवाया। स्वामी जी का विचार था कि जिस समाज और देश में शिक्षक स्वयं चरित्रवान नहीं होते उसकी दशा अच्छी हो ही नहीं सकती। उनका कहना था कि हमारे यहां शिक्षक हैं, प्रोफ़ेसर हैं, प्रधानाचार्य हैं, उस्ताद हैं, मौलवी हैं, पर आचार्य नहीं हैं। आचार्य अर्थात् आचारवान व्यक्ति की महती आवश्यकता है।

23_दिसम्बर श्रद्धानंद का बलिदान दिवस शुद्धिआन्दोलन के प्रणेता, गुरुकुल कांगड़ी हरिद्वार के संस्थापक स्वामी श्रद्धानन्द

अंग्रेजो का शासन था , अंग्रेजों ने मुगलों से सत्ता पाई थी तो सत्ता मे अंग्रेजी के साथ -साथ उर्दू का प्रभाव था स्वामी श्रद्धानन्द स्वयं भी उर्दू के बड़े विद्वान थे , कुरान कंठस्थ कर ली थी ताकि कोई उन्हें कुरान के नाम पर बरगला ना सके , ओऊम् का ध्वज थाम लियी था । उन दिनों हिन्दुओं का बड़े पैमाने पर धर्मान्तरण हो रहा था , । बहुत से लोग ईसाई व बहुत मुसलमान बनाये जा रहे थे , एक बार यदि किसी ने सनातन धर्म छोड दिया तो उसके लिये घर वापसी सम्भव ही नही थी , पर स्वामी श्द्धानन्द ने सबके लिये सनातन धर्म के दरवाजे खोल दिये उन्होने विरोधियों की परवाह नही की , लाखों ईसाई व मुसलमान बन गये लोग पुन: सनातनी बनने लगे तो विरोध भी हुवा , । सनातन धर्म के पोंगापन्धी भी कम बिरोधी नही थे कुछ लोग तो आज भी मुंह खोल देते है , । घर वापसी का भी विरोध करते है ।तब तो और भी खराब माहौल था । शुद्धि आन्दोलन गुरुकुल शिक्षा पर तो आर्य समाज मे भी स्वामी श्रद्धानन्द के विरोधी मौजूद थे , । उनके शुद्धि आन्दोलन को लेकर महात्मां गाँधी भी उनके आलोचकों मे शामिल थे ।इसी श्ंखला मे एक धर्मान्ध अब्दुल राशिद ने 23 दिसम्बर 1926 स्वामी श्रद्धानन्द की हत्या कर दी। उनकी स्मृति 23 मार्च को स्वामी श्रद्धानन्द का बलिदान दिवस मनाया गया । अक्सर कहा जाता है कि महात्मां गाधी ने अब्दुल राशिद का बचाय कियी पर गांधी ने कही भी अब्गुल राशिद के कृत्य को सही नही ठहराया

5नवम्बर 1926- 20 जनवरी 1927 , पृष्ठ सं 474-475,

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