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प्रधानमन्त्री ने जब नये संसद का उद्घाटन किया तो इस अवसर पर दो ऐतिहासिक प्रतीक चिन्ह भी यहां स्थापित किये गये , जिसमे अशोक स्तम्भ के साथ ही एक और प्रतीक शामिल है जिसकी चर्चा इन दिनों काफी हो रही है सेंगोल , यह तमिल भाषा का शब्द है इसका मतलब है राजदण्ड़ , कहा जा रहा है कि यह राजदण्ड़ उसके शीर्ष पर ऋषभ यनि नन्दी स्थापित है, दर असल यह राजदण्ड क्या है , कहा से प्रचलन मे है इसको समझने का प्रयास करते है दरअसल राजदण्ड , भारतीय सत्ता हस्तान्तरण का प्रतीक चिन्ह है इसका जिग्र अथर्ववेद मे आया है ।

इस राजदण्ड़ के सम्बन्ध में
अथर्ववेद 18/2/29 में दण्ड वर्णन है –
दण्डं हस्ता॑द॒ददा॑नो गृ॒तासः स॒ह श्रोत्रे॑ण॒ वर्च॑सा बलैन ।
अत्रैव त्वामह वयं सुवीरा॒ विश्वा॒ मृधो॑ अ॒भिमा॑त॒र्जयेम।।
इसका अर्थ करते हुये पं. क्षेमकरणदास त्रिवेदी लिखते हैं-
(गतासोः)प्राण छोड़े हुये मृतक समान निरुत्साही पुरुष के (हस्तात्)हाथ से (श्रोत्रेण)श्रवण सामर्थ्य विद्याबल (वर्चसा)तेज और(बलेन सह) बल के साथ (दण्डम्)दण्ड अर्थात् शासन पद को (आददानः)लेता हुआ (त्वम्)तू (अत्र एव)यहाँ पर और (वयम्)हम(इह) (सुवीराः)बड़े वीरों वाले होकर (विश्वाः)सब (मृधः)संग्रामो और (अभिमातीः)अभिमानी शत्रुओं को (जयेम)जीतें।
कहने का अभिप्राय है कि जैसे राष्ट्रध्वज किसी देश का प्रतीक चिन्ह है ,। वैसे ही इस मन्त्र में दण्ड को शासनपद के आधिकार के आदान-प्रदान रूप में वर्णित किया गया है । दण्ड अर्थात् डण्डा शासन का ही प्रतीक है विना दण्ड ब्यवस्था के अराजकता फैल जाती है । नई संसद भवन में इस दण्ड में जो बैल स्थापित है वह बल का प्रतीक है शासन दण्ड व बल के बिना नही चलता ।
ऋषभ का वर्णन वेद में अनेक स्थानों पर है ।
यजुर्वेद 19/91 में आया है-
इन्द्रस्य रुपमृषभो बलाय ।
(ऋषभः) समस्त नरों में श्रेष्ठ पुरुष(बलाय)जो बलवान् कार्य के लिए नियुक्त किया जाता है उसे कहा जाता है , यह पुरुष (इन्द्रस्य रूपम्) शत्रुनाशक राजा के समान है।
(पं. जयदेव जी विद्यालंकार)
सामर्थ्य के लिये इन्द्र का रूप ऋषभ के समान हुआ।
(पं. श्रीपाद दामोदर सातवलेकर)
उक्त मन्त्राँश में इन्द्र अर्थात् राजा को ऋषभ रूपमें वर्णित किया गया है।
अथर्ववेद का 9/4 सूक्त का देवता ऋषभ है जिसका अर्थ का अर्थ पं. क्षेमकरण जी ने परमेश्वर किया है और पं. सातवलेकर जी ने “बैल” किया है । ध्यान से पढ़ने और विचारने पर ईश्वर के ऋषभ से सम्बन्धित गुण राजा में होने चाहिए अतः ऋषभ को राजा कहना ही उचित है ना कि बैल प्रतीक रूप में दण्ड में बैल की आकृति बना देना वैदिक भावना का द्योतक है।
इसी प्रकार यदि ऋषभ को साँड भी माना जाये तो एक राजा को अपने राज्य में प्रजा को सुखी, निरोगी ,बलशाली बनाने के लिए ऋषभ की महती आवश्यकता होगी (पं. श्रीपाद सातवलेकर जी के सूक्त पर विशेष वक्तव्य से स्पष्ट होता है ) इस कारण वैदिक काल में राजदण्ड पर ऋषभ की आकृति बनायी गयी होगी। कालान्तर में उसे शिव का प्रतिनिधि मानकर व्यवहार होने लगा होगा।
जो भी रहा हो
लेकिन यह स्पष्ट है कि सेंगोल रूपी राजदण्ड और उसपर ऋषभ की प्रतिमा व आकृति होना वेदानुमोदित है।

किन्तु इस सिगोल पर कुछ लोग प्रलाप कर रहे है । इस प्रतीक को प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने यो ही स्थापित नही किया अपितु इसे सत्ता हस्तान्तरण के मौके पर अंग्रेज अधिकारियों ने तत्कालिक प्रधानमन्त्री ज्वाहर लाल नेहरू को सत्ता हस्तान्तरण के प्रतीक के तौर पर दिया गया था , यह प्रतीक भारत की प्राचीनता व वैदिक भारत की संस्कृति का प्रतीक भी है । इससे आपत्ति करना भी उचित नही है ।
बहुत से लोग प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी की आलोचना करते हुवे कह रहे है कि कि मोदी ने संसद भवन मे राजदण्ड़ स्थापित कर राजशाही की तरफ कदम बढा दिये है , उन्होंने राष्ट्रपति व उपराष्ट्रपति का मान नही रखा , यह आलोचना का विषय हो सकता है , पर ऐतिहासिक नही है , सत्ता हस्तान्तरण 1947 मे हुवा था , बर्तमान संसद सत्ता हस्तान्तरण नही है , अपितु एक नई संसद भवन है , ।

मीड़िया रिपोर्ट के अनुसार यह सिगोल प्रतीक नेहरू को व्रिटिस सरकार के प्रतिनिधि तत्कालिक गवर्नर जनरल , माउन्टवेटन ने 15 अगस्त 1947 को सौपा था जिसे नेहरू की सिमृति मे बना संग्रहालय आनन्द भवन इलाहाबाद मे रख दिया गया था ।

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