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नेतागण एक बार विधान सभा व लोकसभा में सपथ ग्रहण करने के बाद पेशन के अधिकारी हो जाते है ।देश मे कर्मचारी चालीस वर्षो तक सेवा करने के बाद भी यदि बुढापें मे एक – एक पैसे के लिये मोहताज हो जाय तो यह मानवीय ब्यवहार नही है । इसी को मुद्दा बनाकर इस चुनाव मे कर्मचारी पुरानी पेंशन बहाली को लेकर कम्पेन चला रहे है । सामान्यत: जवानी के बेतन व भत्ते किसी कर्मचारी के मकान ,बच्चों की परवरिश व पढाई लिखाई में ही खर्च हो जाती है । एक मुस्त मिलने वाली रकम पर परिवारिक सदस्यों की भी नजर रहती है । उस पर सरकार की नीति यह है कि वह ब्याजदर निरन्तर घटा रही है। डूबते बैकों पर लोगों का विस्वास डगमगा रहा है । ऐसे मे पैन्शन ही उनकी बुढापे की लाठी है । जिसे 2004में भा ज पा की अटल बिहारी सरकार ने संसद मे एक बिधेयक के जरिये कानून बनाकर समाप्त कर दिया ।

देश भर में कर्मचारी पुरानी पेंशन योजना को बहाल करने की मांग को लेकर कम्पेन चला रहें है । जिसमें भा ज पा खेमे मे खामोशी है ,तो स पा ने यू पी उत्तराखण्ड़ में इसे चुनावी मुद्दा बना लिया है । अब काग्रेसी खेमे से भी पुरानी पेंशन बहाल करने की चुनावी घोषणा की जा रही है । जागेश्वर से काग्रेस प्रत्याशी गोविन्द सिंह कुन्जवाल ने कहा है कि यदि काग्रेस की सरकार बनेगी तो पुरानी पेंशन बहाल होंगी । , गोविन्द सिंह कुन्जवाल काग्रेस के एक बड़े नेता है उनकी बात को गंम्भीरता से लिया जा सकता है ।

एक लोकतांत्रिक देश में पैंशन सभी का अधिकार है पैंशन बुढापे की लाठी है । इसे बन्द करना किसी भी दृष्ठि से उचित नही है । असंगठित क्षेत्र मे सरकार नई – नई योजना लाकर इसे प्रोत्साहित कर रही है । पर संगठित क्षेत्र मे इसे रोकना कर्मचारियों के गले नही उतर रहा अब राजनैतिक दल भी इसकी गंम्भीरता को समझ रहे है ।