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समय तेजी के साथ बदल रहा है  बच्चें भारतीय संस्कृति के बजाय अग्रेजी संस्कृति मे दिक्षित हो रहे है   ऐसी परिस्तिथियों मे संतानो को दोष  देने के बजाय आत्म मथन करने का गौर है   सन्तानों को दोष देने का नही ।
हम जैसी शिक्षा देंगे वैसा ही समाज निर्मित होगा बालक या बालिकाको *’इंग्लिश मीडियम’* में पढ़ाया…किन्तु परम्परागत धार्मिक संस्रारो से बंचित कर दिया गया  तो स्पष्ठ है कि जो उसे नही मिला वह समाज को उसे रहा से लौटायेगा
‘ संस्कृति निर्माण का प्रयायवाही है। अंग्रेजी’ उपभोगतावाद का । संसकृत पढने वाला बिचारवान जबकि अंग्रेजी अच्छा नौकर बनने , बनाने की भाषा है ।यदि बच्चो के   जन्म दिन केवल बर्थ डे’  और विवाह दिवस  ‘मैरिज एनिवर्सरी’ हो जाय तो जन्म का अर्थ केवल पैदा होना ही माना जायेगा ।जबकि जन्म का अर्थ है क्रमिक विकास एक माता अपने बच्चे को रेवल पेट मे ही नही पालती है बल्कि वह उसे पैदै होने रे बाद  मनुष्य बनाने तक पालती है । इस प्रकार से हर दिन कुछ ना कुछ जुड रहा है तो रुछ छूट रहा है जन्म दिवस को संस्कार गिवस के रूप मे मनाया जाय तो बच्चे संस्कारी होंगें ।
जीवन के ‘शुभ दिवसो को ‘अब अंग्रेजी कल्चर’ के अनुसार मनाना ही इन दिनों  ‘श्रेष्ठ’ माना जाने लगा है माता-पिता को ‘मम्मा’ और
‘डैड’ कहना  उन स्कूलों ने सिखाया जिन्हें मां -बाप मोटी फीस  देकर  प्रोतिसाहित कर रहे है ।

ऐसे समय में जब ‘अंग्रेजी कल्चर’ से परिपूर्ण बालक या बालिका बड़ा होकर, माता -पिता को  ‘समय’ नहीं देता,  उनकी  ‘भावनाओं’ को नहीं समझता,  उन्हें ‘तुच्छ’ मानकर ‘जुबान लड़ाता’ है और माता – पिता  को बच्चों में कोई ‘संस्कार’ नजर नहीं आता है, तो इसके दोषी वे जवान बच्चें नही है । उन्हें ऐसा बनाने के लिये लाखों रुपये मां -बाप ने ही खर्च किये है । आज के दौर मे उन बुजुर्गों के लिये केवल यही कहा जा सकता है कि  अपने  घर के वातावरण को ‘गमगीन किए बिना’… या…
‘संतान को दोष दिए बिना’
कहीं ‘एकान्त’ में जाकर ‘रो लें’

क्योंकि… अपने पुत्र व पुत्रियो को उनके जन्म या विवाह दिवस पर  पहली वर्षगांठ से ही,
‘भारतीय संस्कारों’ के बजाय
‘केक’ कैसे काटना यह भी, सिखाने वाले मां – बाप हीथे …
‘हवन कुण्ड में आहुति’ कैसे डाली जाए… यह बच्चों के सिखाया ही नही जाता ,हवन हो या खानपान दोनों की शुद्ध होने चाहिये पर पिज्द वर्गर खाने वाले बच्चे हवन से कब दूर हो गये पता ही नही चला मंदिर, मंत्र, पूजा-पाठ, आदर-सत्कार के संस्कार देने के बदले,’…  आज के माता पिता ने
केवल ‘फर्राटेदार अंग्रेजी’ बोलने को ही,
अपनी ‘शान’ समझ लिया है ।

बच्चा जब पहली बार घर से बाहर निकला तो उसे
‘प्रणाम-आशीर्वाद’ के बदले
‘बाय-बाय’ कहना सिखाने वाले माता -पिता बुढापे मे चाहते है कि बच्चे बाय- बाय नही प्रणाम करे ,। यह कैसे संभव है  एक समय था जब परिक्षा देने के लिये जा रहा बालक माता पिता व भगवान को हाथ जोड़ता था अब परीक्षा देने जाते समय
‘इष्टदेव/बड़ों के पैर छूने’ के बदले
‘Best of Luck’
कह कर परीक्षा भवन तक छोड़ने वाले  माता पिता …ने बच्चों को जिससे आशिर्वाद से वंचित रखा बच्चे उन्हें वह  श्रद्

बालक या बालिका के ‘सफल’ होने पर, घर में परिवार के साथ बैठ कर ‘खुशियाँ’ मनाने के बदले…
‘होटल में पार्टी मनाने’ की ‘प्रथा’ को बढ़ावा देने वाले आप…

बालक या बालिका के विवाह के पश्चात्…
‘कुल देवता / देव दर्शन’
को भेजने से पहले…
‘हनीमून’ के लिए ‘फाॅरेन/टूरिस्ट स्पॉट’ भेजने की तैयारी करने वाले आप…

ऐसी ही ढेर सारी ‘अंग्रेजी कल्चर्स’ को हमने जाने-अनजाने ‘स्वीकार’ कर लिया है…

अब तो बड़े-बुजुर्गों और श्रेष्ठों के ‘पैर छूने’ में भी ‘शर्म’ आती है…

गलती किसकी..?
मात्र आपकी ‘(माँ-बाप की)’

अंग्रेजी International ‘भाषा’ है…
इसे ‘सीखना’ है…
इसकी ‘संस्कृति’ को,
‘जीवन में उतारना’ नहीं है…

मानो तो ठीक…
नहीं तो भगवान ने जिंदगी दी है…
चल रही है, चलती रहेगी…
आने वाली जनरेशन बहुत ही घातक सिद्द्ध होने वाली है, हमारी संस्कृति और सभ्यता विलुप्त होती जा रही है, बच्चे संस्कारहीन होते जा रहे हैं और इसमें मैं भी हूं , अंग्रेजी सभ्यता को अपना रहे

सोच कर, विचार कर अपने और अपने बच्चे, परिवार, समाज, संस्कृति और देश को बचाने का प्रयास करें…

हिन्दी हमारी राष्ट्र और् मातृ भाषा है इसको बढ़ावा दें, बच्चों को जागरूक करें ताकि वो हमारी संस्कृति और सभ्यता से जुड़ कर गौरवशाली महसूस करें।

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