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हिंदू समाज में मूर्ति पूजा और अवतारवाद कैसे शुरू हुआ?

वैदिक वांग्मय उपमा अलंकारों से भरा पड़ा है पर कही भी यह घोषित नही करता कि ईश्वर को अपनी बात कहने के लिये समझाने के लिये किसी अवतार की आवश्यकता है । जो लोंग ईश्वरीय वाणि से लोंगों का मार्गदरशन करते है वे जनम् मरण के बन्धन मे फंसे होकर भी महात्मा कहे जाते है भगवान की उपाधि से विभूषित भी हो जाते है पर वे सर्वशक्तिमान ईश्वर नही हो सकते है । विनु पद चलहि सुनहु बिनु काना ।ईश्वर जिस महापुरुष को चाहे उसकी आत्मा की आवाज बन सकता है , सब कुछ देख सकता है । वेद कहते है कि मनुष्य ईश्वर से शक्ति ग्रहण कर सकते है । वेदों का ज्ञान मनुष्यों के लिये ही है ।

मूर्ति पूजा व अवतार वाद नास्तिक मत जैन धर्म की देन है । जब पोप(पाखंण्ड़ी) जी अपने चेलों को जैनियों से रोकने लगे तो भी मंदिरों में जाने से न रुक सके,और जैनियों की कथा में भी लोग जाने लगे।जैनी पोप इन पुराणी पोपों के चेलों को बहकाने लगे।तब पुराणियों ने विचारा कि इसका कोई उपाय करना चाहिए, नहीं तो अपने चेले जैनी हो जायेंगे। इसलिए पोपों ने यही सम्मति की कि जैनियों के समान अपने भी अवतार, मंदिर, मूर्ति और कथा की पुस्तकें बनायें। तब इन लोगों ने जैनियों के चौबीस तीर्थंकरों के समान चौबीस अवतार, मंदिर और मूर्तियां बनवायीं। और जैसे जैनियों के आदि और उत्तर पुराणादि हैं वैसे ही अट्ठारह पुराण बनाने लगे।
-सत्यार्थ प्रकाश

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