एक पच्चीस वर्ष का नवयुवक अल्लाह को प्यारा हो गया , एक सज्जन सान्त्वना देने पहुंचे , बहिन जी आपके साथ बहुत बूरा हुवा ,। आप इतनी कम उम्र में बिधवा हो गई । माता जी आपका बेटा चला गया । बेचारा ,आपका पति भरी जवानी में चला गया । पत्नी बोली भाई जान पति को बेचारा मत कहिये वे भरी जवानी में अल्लाह को प्यारे हो गये । कयामत के दिन अल्लाह सबसे पहले उन पर कृपा बरसायेगा । मेरा क्या मै भी अपनी राह पर चलुंगी फिर से कोई ढूढना पड़ेगा ताकि निकाह कर सकू । उसका विस्वास है कि कयामत के दिन जो जिस उम्र व अवस्था में कब्र मे गया उसी अवस्था में जी उठेगा ।अल्लाह उसे जन्नत बख्सेगा , जन्नत मे उसे 72 हूरों के साथ वह सभी सुख सुविधाये मिलेंगी , धरती मे जो अकल्पनीय है । यही बिचार मृत्यु के भय को समाप्त कर देता है ,तथा शोक से दूर भी ,
मैने यो ही पूछ लिया वहिन जी यदि आप भी इतती ही कम उम्र मे अल्लाह को प्यारी हो जाती तो आपको भी वही सुविधाये मिलती जो आपके शौहर को मिलेंगी, वह बोली भाईजांन हम तो औरत जात ठहरी , हमारा वह नशीब कहां यह सारा ज्ञान उस बहिन को जम्मजात ज्ञान के रूप में नही था । मदरसे में सिखाया पढाया गया था ।
सर्वविदित है कि 1857 के संग्राम मे जितने सन्यासी गोरक्षपीठ में रहते थे उतने ही फरीर भी । फिर यह जानमे योग्य बाते है कि तब जो मतभेद के बाद भी एकता थी आज वह क्यों नही है । इसका प्रमुख कारण यह है कि कब इस्लामी शिक्षा किकाबों हदीसों पर निर्भर ना होकर सूफू सन्त व फाजिलों से फैलती थी । वे हिन्दु सन्यासियों के साथ ही रहते थे ।किन्तु जब संख्याबल बढा तो मदरसे मस्जिदें , आधुनित तकनीकि से पुस्तकें भी सरकारे भी कुरान पढाने के लिये आर्थिक सहयोग देने लगी । ये कुरान पढे हुवे लोग , अल्लाह की सेनाये , जैस ए मुहम्मद , आई एस आई एस , हुर्रियत , तालिवान , आदि नाम से निजि सेनाये बनाने लगे ,इनका खेल , सीरिया, यमन , अफगानिस्तान , पूर्व सोवियत संघ के देशो से होता हुवा , भारत के कश्मीर तक पहुच गया जहां आबादी ज्यादा है । यहां मरने व मारने वाले दोनों ही इस्लामिक स्कोलर है । इस्लाम मानने वाली अधिकांश जनता शान्तिप्रिय ही है । पर नवयुवक जिन्हे मदरसों मे यह पढाया जाता है तयकि जो युवा जितनी जल्दी अल्लाह को प्यारा होगा कयामत के दिन उसका फैसला सबसे पहले होगा ।
मुगलकाल से यदि पहले चले जाये तो भारत मे राजा दाहिर के समय जब ईस्लाम अरब मे फैल रहा था , तो आपसी लड़ाई मे वहां से भागे हुवे लडाको को भारत में पनाह मिली , । अरब से आरम्भ हुवा इस्लामिक जेहाद धीरे -धीरे दुनिया भर में फैला भारत मे इस्लाम धर्मयुद्ध के रूप मे नही आया अपितु देशी राजाओं के आमंन्त्रण पर उनका मददगार बनकर आया ।यही कारण था कि जो लोग भारत मे बुदपरस्त नही थे। उनसे इस्लाम का झगड़ा नही था ।
1857ं में जब अंग्रेजो को भारत में सामुहिक बिद्रोह झेलना पड़ा तो अंग्रेजो ने सबसे पहले शिक्षा पर ही प्रहार किया । मैकाले की शिक्षा नीति सामने आई जिंसमें यह ब्यवस्था दी गई कि सभी परम्परागत गुरुकुल बन्द होंगे जो भी पठन – पाठन करायेगा उसे सरकार से मान्यता लेनी अनिवार्य होगी । भारत की सनातन शिक्षा का वैदिक पक्ष लुप्त हो गया , निराकार भक्तिधारा पर साकार भक्ति धाराका रंग चढने लगा ।वह इसलिये प्रभावित हो गई क्योकि अब हिन्दु केवल संस्कारों के लिये ही ब्राह्मणों की गुरुकुल परम्पराओं पर निर्भर था , अन्य शिक्षा , अक्षरबोध तो उसे मान्यता प्राप्त मैकाले के स्कूलों में होने लगी । उस दौर में सनातन धर्म को किसी प्रचार की भी जरूरत नही थी क्योकि वह धर्म बदलने मे विस्वास नही करता था । जातीय काम- काज उसे आर्थिक सुरक्षा भी दे रहे थे , यही कारण था कि यद्यपि सनातन धर्म से लोगों की रुचि भलेहि कम हो रही हो पर तब के लोगों ने धरम बदलने के बाद भी जाति नही बदली । क्योकि जाति के कारण काम पकडने मे आसानी थी।
सनातन धर्म के आचार्यो मे किसी के भी पूजा – पाठ के तौर तरीको को सहज भाव से लिया जाता है । सदैव मिलकर चलने की बात होती थी, किन्तु मैकाले की शिक्षा के बाद इस्लामिक दुनिया ज्यादा सतर्क हो गई मदरसा शब्द प्रचलन मे आया , मदरसे खोले जाने लगे इस्लामिक शिक्षा जोर पकडने लगी । इतिहास में दर्ज अभिलेख बताते है कि जितना धर्मान्तरण व ईस्लामिक शिक्षा का प्रचार , अंग्रेजों की सरकार मे हुवा उतना तो मुगल काल मे भी नही हुवा । भारत में जितने भी बडे -बड़े मदरसे है उतने बड़े स्तर मे तो अरब मे भी नही है अंग्रेजों की ओर से इन्हे राजनैतिक कारणों से भरपूर सहयोग मिला ताकि भारत की एकता तोड़ी जा सके व दुनिया मे धार्मिक आधार पर फूट पड़े व उनका राज्य सुरक्षित हो सकें ।यह कूटनीति सफल भी रही इस्लामिक जेहाद ने भारत को ही नही तो़डा अपितु यहूदियो, पारसियों व काफी इलाको से बौद्धो का भी सफाया हुवा । सोवियत संघ इसी जेहाद के चलते बिखर गया । आज भी रूस में युक्रेन के खिलाफ चेचेन बिद्रोंही लड़ रहे है , ये दुनियां के सबसे खुखार लडा़के माने जाते है ।
भारत मे अंग्रेजो की कूटनीति को सबसे पहले आर्य समाज के प्रवर्तक संस्थापक दयानन्द सरस्वती मे समझा , उन्होंने कुरान व बाईविल की तरफ आकर्षित हो रहे युवाओं का आह्वान किया कि वेद की ओर लोटो , । यह नारा भारत के युवाओं की प्रेरणा बन गया , डी एवी,,गुरुकुलों ने जहां बैचारिक ताकत दी वही आर्य समाज की चुनौती के रूप मे पहली बार आदि गुरु शंकराचार्य के बाद किसी सन्यासी ने सनातन धर्म के लिये दरवाजे खोले तो वह महर्षि दयानन्द ही थे । स्वामी जी ने मनुस्मृति , वेद दर्शन व उपनिसद व ब्याकरण के आधार पर समझाया कि जन्म से सब अज्ञानी व अधार्मिक ही होते है। आचार्य ही उन्हे द्विज बनाते है । अत:जो सनातन धर्म छोडकर चला गया वह फिर से स्वधर्म मे वापसी कर सकता है । यद्यपि बर्तमान सनातन शंकराचार्य अपने गुरु की राह पर नही है, वे वर्णााश्रम ब्यवस्था के बजाय जातिगत ब्यवस्था में ज्यादा भरोसा करते है, वे घर वापसी के बिरोधी है । आर्य समाज ने घर वापसी के बन्द दरवाजे खोल दिये , स्वामी श्रद्धानन्द तो घर वापसी के सबसे बड़े पैरवीकार बनकर उभरे ।एक जेबादी मुसलमान अब्दुल ने उनकी हत्या कर दी थी । जेहाद की घिनौनी मानसिकता को कानून से नही शिक्षा से रोका जा सकता है सरकार को कुरानी शिक्षा के लिये आर्थिक सहायता देने के बजाय देश में भाईचारा एकता बढाने वाली संस्थाओ को सहयोग करना चाहिये । अब वक्त आ गया है कि अंग्रेजी ब्यवस्था बदलनी चाहिये । कुरान के उजले पक्ष कही खो गये है नफरतों को युवाओं के कोमल मन मे उढेलने का शिलशिला चल पड़ा है । इसके उजले पक्ष पर यदि कोई है तो बातचीत जरूरी है ।