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बिना खलनायक के नायकत्व कभी सिद्ध नही होता है , दुर्योधन के बिना महाभारत अधूरा है ,दुर्योधन ना  होता  तो महाभारत की नींव ही नही पढती ना ही गीता का जैसा उपदेश सुनने को मिलता , खलनायक भलेही ब्यापक समाज को अखरता हो पर यह भी सच है कि समाज मे लोक उसकी अच्छाईयों के भी कायल होते है ।यही कार्ण है कि जहा आज भी कुछ लोग रावण की पूजा करते है तो कुछ दुर्योधन की भी ।

                                 सम्पादक


“हर की दून” एक रहस्यमयी, मनोहारी और प्राकृतिक सुंदरता से भरपूर घाटी है | यह घाटी गढ़वाल मंडल के उत्तरकाशी जिले में स्थित है और हिमालय की खूबसूरत परिवेश के बीच है, जिसकी ऊंचाई समुद्र तल से लगभग ११७०० फ़ीट है | हर की दून का शाब्दिक अर्थ है “ईश्वर की घाटी” यानी यह एक महत्त्वपूर्ण पौराणिक क्षेत्र है | यहाँ की प्राकृतिक सौंदर्यता, प्राचीन संस्कृति और अनूठी जीवनशैली इसे एक प्रमुख पर्यटन स्थल बनाते हैं। यह घाटी गोविंद पशुपति नेशनल पार्क के पास स्थित है।यह घाटी पर्यटकों के बीच बहुत ही लोकप्रिय है। यहाँ पर्यटक ट्रेकिंग, कैंपिंग, और प्राकृतिक दृश्यों का आनंद लेते हैं। इस घाटी में प्राचीन मंदिर, गाँवों की आदिवासी संस्कृति, और पारंपरिक बस्तियाँ हैं। इस घाटी में वन्यजीवों की अधिकता है। यहाँ पर जंगली जीव जैसे कि हिरण, भालू, तेंदुआ, और चीतल पाए जाते हैं।
स्वर्ग रोहिणी चोटी, जॉनदार ग्लेसिअर , आटा पीक, मञिंदा लेक, रूइंसारा लेक इसकी सुंदरता में चार चाँद लगाते हैं | इतनी ऊंचाई पर करीब २३ किलोमीटर का ट्रैक कर पहुंचकर ऐसा लगता है कि मानों हम स्वर्ग में पहुंच गए हैं | सामने स्वर्ग रोहिणी और चार खम्भा चोटियों को देखकर सारी थकान उतर जाती है |
इस घाटी के बारे में लोगों से सुनते आये थे | यहाँ की दो प्रथाएं क्रमशः दुर्योधन की पूजा और बहु पति प्रथा जानने की जिज्ञाषा हुई | साथ ही यहाँ की प्राकृतिक सुंदरता को देखने की ललक हुई तो अपने साथी श्री विशाल मोहला और ओबेरॉय सदन के अपने कक्षा नवी के २० छात्रों (ट्यूटीज) के साथ मिड टर्म के दौरान ‘हर की दून ट्रेक’ की योजना बनायीं | साथी मोहला और छात्र काफी उत्साहित हुवे और हमने ट्रैक के लिए पुख्ता इंतजाम कर काफी खरीददारी की और आठ अप्रेल के दिन सुबह पांच बजे अपने मुकाम के लिए निकल पढ़े | हमारी बस विकासनगर होते हुवे डामटा पहुंची और यहाँ छोले, भठूरे, जलेबी और गरम चाय का आनंद लिया | बच्चे बार बार बर्फ देखने के लिए उत्साहित थे और उत्सुकतावश पर्वत शिखरों को निहार रहे थे | गाने गाते, मश्ती करते पुरोला से आगे बढे, पता ही नहीं चला कब मोरी आ गया | हमने टोंस नदी के दीदार किये और हमने हनोल के महासू देवता के बारे में भी बात की क्योंकि इस क्षेत्र के लोगों का महासू देवता में बहुत ज्यादा विश्वास है |
मोरी के आस पास हमने लोगों को सेव के बगीचों में काश्तकारों को काम करते हुवे देखा | पिछले कुछ सालों से इस क्षेत्र के लोग हिमाचल की तर्ज पर सेव उत्पादन की दिशा में बढ़ रहे हैं | सेव और ट्रैकिंग लोगों का प्रमुख ब्यवसाय बनने से लोगों के आय स्रोत बढे हैं | इस क्षेत्र के ज्यादातर युवाओं ने ट्रैकिंग गाइड को अपना पेशा बनाया है |
शाम चार बजे हम सांकरी पहुंचे, वहां हम राणा जी के होम स्टे में रुके | चाय पकोड़े खाकर बच्चों ने क्रिकेट खेला | ठण्ड काफी बढ़ गयी थी और बिजली भी गुल हो गयी थी | धीरे धीरे बूंदाबांदी ने हमारा टेंशन बढ़ा दिया था कि अगले दिन की यात्रा कैसे होगी ? खैर सुबह होने तक बारीस थम गयी और सुबह सात बजे अपना अपना टिफ़िन पैक कर हम ने जीप द्वारा करीब 14 किलोमीटर का सफर तय किया | तालुका तक सड़क अच्छी बनी है, उसके आगे बहुत ही खतरनाक है | जैसे तैसे हरिनाम जपकर डरते डरते सभी सीमा गांव तक जीप से पहुंचे, उसके आगे सड़क में काम चल रहा था | यहाँ से आगे धाटमीर गांव होते हुवे हमने ओसला गांव के नीचे सुपिन नदी में बने पुल को पारकर खड़ी चढ़ाई चढ़ते हुवे अपने बेस कैंप कलकत्तिधार पहुंचे| पुल के दायीं तरफ का ट्रैक रूईनसारा लेक और यमुनोत्री के लिए निकल जाता है | बेस कैंप में पहुंचते ही बूंदाबांदी शुरू हो गयी थी | तापमान भी करीब २ डिग्री तक गिर गया था | अपने अपने टेंट में स्लीपिंग बैग के अंदर घुस जाने का निर्देश पाकर हम सभीने अपने को ठण्ड से बचाया | गाइड राणा जी और उनकी टीम ने सूप देकर ठण्ड से बचाया | एक टेंट डाइनिंग एरिया के रूप में सजाया गया था | डिनर कर हम सभी अच्छी नीड सो गए | रात को तापमान -४ डिग्री तक गिर गया था | सुबह करीब साथ बजे हर की दून देखने की जिज्ञासा ने मनो शरीर में प्राण फूंक दिए | मश्ती करते, बातें करते और सामने रूईनसारा ट्रैकर्स को देखते हम सभी अपने ट्रेक में आगे बढ़ते चले | कहीं उतार तो कही चढाव लिए यह ट्रेक, ट्रैकर्स को दुर्गम नहीं तो आसान भी नहीं लगता है | कहीं कहीं पर बर्फ दिखने से बच्चे ख़ुशी से झूम उठे | करीब ५ घंटे ट्रैक कर हम 14 किलोमीटर चलकर आखिर में हर की दून पहुंचे | चरों ओर हिमाच्छादित चोटियां और ग्लेशियर देखकर तथा अपने को बर्फ में पाकर मन प्रफुल्लित हुवा | बच्चों ने बर्फ में खूब खेला |
करीब एक डेढ़ घंटा वहां रुकने के उपरांत हमने वापसी का ट्रेक शुरू किया | वापसी में बर्फवारी भी शुरू हो गयी, अपने रैनकोट पहनकर सभी सुरक्षित बेस कैंप पहुंचे | अगले दिन मन में उठ रही जिज्ञासाओं और इस क्षेत्र के इतिहास को जानने के उद्देश्य से बच्चों ने क्षेत्रीय लोगों से कई प्रश्न पूछे | अपने बच्चों को स्कूल भेजें कहकर हमने कई अभिभावकों से वार्ता की | हमारे बच्चों के साथ इस ट्रेक पर अन्य कई ग्रुप्स भी थे | कई प्रोफेशनल्स और विदेशी ट्रेकर्स से भी हमने वार्ता की और उनके उदेश्य को भी जाना |
साँकरी से आगे तालुका, धाटमीर, धारकोट, गंगवार, पुवाढ़ि, और ओसला गांव इस ट्रैक में आते हैं | सुपिन नदी के किनारे किनारे आगे बढ़ते हुवे ट्रैक का सफर रोमांचक होता है | जौन्धार ग्लेशियर ही सूपिन नदी का उद्गम है। यही नदी नैटवाड़ में रूपिन नदी से मिलकर टोंस नदी का निर्माण करती है | बाद में यह यमुना में मिल जाती है | हर की दून यानी “ईश्वर की घाटी” एक महत्त्वपूर्ण पौराणिक क्षेत्र है | इस क्षेत्र से पांडवों और कौरवों का भी इतिहास जुड़ा है | अज्ञातवास के दिनों में पांडवों की शरण स्थली लाखामंडल भी इस क्षेत्र से काफी नजदीक है | महाभारत युद्ध के बाद अपने सन्यासकाल में युधिष्ठिर जिस स्वर्ग रोहिणी से स्वर्ग गए वह पर्वतमाला भी हर की दून से बिल्कुल सामने दिख जाती है | इस तरह यह घाटी महाभारतकालीन मान्यताओं के लिए भी जानी जाती है |
मन में ट्रेक करने से पहले उठे सवाल कि क्या यहाँ दुर्योधन पूजा जाता है ? इस सवाल को हमने कई क्षेत्रीय लोगों से पूछा | इस तथ्य के पीछे के इतिहास को जानने की कोशिश की |
नैटवाड़ में महान योद्धा कर्ण का मंदिर भी बना है | क्षेत्रीय लोग कर्ण मंदिर में पूजा अर्चना आज भी करते हैं | यानि दुर्योधन का महाभारत युद्ध में साथ देने वाले की पूजा लोग करते हैं | इसके पीछे जो भी कारण हों लेकिन दुर्योधन को देवता मानने वालों की संख्या आज भी कम नहीं है | हो सकता है उस काल में इस क्षेत्र के लोग दुर्योधन की तरफ से लड़े हों | जब मैंने इस ट्रैक के अंतिम गांव ओसला के बुजुर्गों से गांव में स्थित मंदिर के बारे में पूछा तो उन्होंने मुझे बताया कि गांव में स्थित मंदिर सोमेश्वर भगवान का है और वे सभी शिव भगवन की पूजा करते हैं | उन्होंने बताया कि २२ गांवों में सोमेश्वर भगवान की डोली जाती है, और यही उनके आराध्य हैं | जब मैंने पूछा कि दुर्योधन मंदिर कहाँ है ? उन्होंने दबी जुबान से बताया कि दुर्योधन का मंदिर भी सोमेश्वर मंदिर के पास ही था लेकिन अब वह मंदिर इसी मंदिर में समाहित हो गया है | दुर्योधन की अब कोई मूर्ति नहीं है | जब यही प्रश्न नवयुवकों से पूछा तो उन्होंने दुर्योधन की पूजा और उसके मंदिर वाली बात को नकार दिया | उनका कहना था कि ट्रैकर्स ने यहाँ के इतिहास को गलत ढंग से पेश किया है |
हर की दून में ट्रैक गाइड जसपाल सिंह राणा ने बताया कि दुर्योधन को उनके बुजुर्ग सुयोधन नाम से बहुत मानते थे और उसकी वीरता का बखान भी करते थे | बचपन में कई गाने सुयोधन की वीरता और राजपाठ पर क्षेत्रीय भाषा में उन्होंने अपने माँ बाप से ही सुने | श्री राणा का कहना है कि दुर्योधन की पूजा अवश्य होती थी भले ही आज की पीढ़ी इस बात को नकार रही है | ट्रेक के किनारे जंगल में चाय की दुकान चलाने वाले कालू जुवांठा ने बताया कि सुयोधन को देवता का रूप अवश्य मिला, लेकिन समय के साथ यह मान्यता कम हो गयी है | हुड़के की थाप पर सुयोधन आता है या फिर और कोई लेकिन क्षेत्रीय देवता, प्रकट अवश्य होता है | जब हम ओसला गांव में स्थित सोमेश्वर भगवान के मंदिर में दर्शन हेतु गए तो लोगों ने बताया कि आजकल भगवान सोमेश्वर भगवन जखोल गांव में विराजमान हैं | मंदिर के पास में दो और मंदिरों को उन्होंने हमें स्टोर रूम बताया | हो सकता ही कि वे दो स्टोर रूम सुयोधन के मंदिर हों | सुयोधन ने अवश्य इस क्षेत्र में कुछ अच्छे काम किये होंगे | तभी आज भी लोग उसे देवता मानने में परहेज नहीं करते हैं | पांच हजार साल पुरानी विरासत के अवशेष या पाण्डुलिपि तो उपलब्ध नहीं है अपितु किवदंती से ही रचा बुना यह विश्वास है | गांव के ही बुजुर्ग श्री राजू पंवार से भी जब यही प्रश्न बच्चों ने पूछा तो उन्होंने बताया कि राजाओं की पूजा तो सभी करते थे, राजा में ईश्वरीय अंश होता है | दुर्योधन भी तो राजा ही थे | यानि उन्होंने दुर्योधन की पूजा होने वाली बात को स्वीकार किया | सूचना क्रांति के इस युग में महाभारत के किरदारों में दुर्योधन की भूमिका अत्यधिक नकारातमक देखने को मिली, हो सकता है नयी पीढ़ी के लोगों ने जनमानस की भावना के अनुरूप ही अपनी सोच को रखना उचित समझा और अपने बुजुर्गों की मान्यता को तिलांजलि तभी दी हो | साथ ही ट्रेकर्स द्वारा लिखी गयी रिपोर्ट को गलत बताने का बीड़ा अब क्षेत्रवासियों ने उठाया हो | यही कारण रहा होगा कि दुर्योधन के मंदिर को सोमेश्वर भगवान के मंदिर में समाहित किया | खैर जो भी हो दुर्योधन की पूजा होती जरूर थी भले ही आज लोग इस बात को एक मिथ्या कहकर टाल रहे हैं |
अब बारी थी दूसरे प्रश्न के उत्तर को खोजने की | क्या आज भी बहु पति प्रथा है ? हमने गंगगवाड़ से ओसला को जा रहे ग्रामवासी श्री चतुर सिंह रावत से यह प्रश्न पूछा | उन्होंने बताया कि इस क्षेत्र में आज भी लोगों का पलायन न के बराबर हुवा है | खेतीबाढ़ी, पशुपालन, जड़ी बूटी और अब पर्यटन की वजह से लोग इस क्षेत्र विशेष में ही रमे रहते हैं | यही कारण है कि यदि दो या तीन भाईयों में उम्र का अंतर काम होता है तो एक भाई द्वारा ब्याही गयी दुल्हन सभी भाईयों की पत्नी होती है | इसका मुख्या कारण उन्होंने बताया कि इससे जानवरों और खेतीबाढ़ी में बंटवारा नहीं होता है | गाइड जसपाल सिंह राणा ने भी हमें उनके गांव के खच्चर पालक दो भाईयों से मिलाया | दोनों भाई अपनी पत्नी के साथ मिलजुलकर रह रहे हैं | हमने गांव की ही एक बुजुर्ग महिला से इस प्रथा की अच्छाई और बुराई के बारे में बताने को कहा तो उन्होंने बताया कि गृहशांति का यह अचूक बाण था | उन्होंने पांच भाई पांडवों और द्रोपदी की कहानी हमें सुनाई |
बकरी चारा रहे रोशन जी ने बताया कि करीब २०-३० साल पहले शादी के लिए बर पक्ष को बहुत पैसा देना पढता था, पैसे की आमदनी उन दिनों बहुत कम थी | जोड़तोड़कर एक दुल्हन के लिए लड़के के परिवार वाले पैसा जमा कर लेते थे, बाकी बेटों की दुल्हन के लिए पैसा नहीं जुटा पाते थे | इसलिए पहु पति प्रथा थी| अब बहु पति प्रथा गिने चुने परिवारों में ही है |
महिला सशक्तीकरण और शिक्षाक्रंति के इस युग में बहु पति प्रथा का प्रचलन होना हर सुनने वाले को गलत लगती है, वहीं इस क्षेत्र के लोग भी इस प्रथा को नकारते हैं | आज के सुशिक्षित और सभ्य समाज में यह प्रथा बिल्कुल भी मान्य नहीं है | मानव जीवन विकास के पथ पर अग्रसर है , समाज में ब्याप्त कई कुप्रथाओं का उन्मूलन समय के साथ हुवा है | मेरा विश्वास है कि इस कुप्रथा का भी उन्मूलन अवश्य होगा | ‘ईश्वर की घाटी’ शिक्षा, स्वास्थ्य, ब्यापार, पर्यटन , बिजली उत्पादन, आदि अनेकों क्षत्रों में प्रगति करेगी |

इस तरह तीन दिन में हमने कुल ४६ किलोमीटर का ट्रेक किया | हरे भरे पहाड़ों, पीले पीले सरसों के फूलों से रंगमयी घाटी, कलकल बहती सुपिन, मोनाल की चहचहाहट, हिमनद, बकरियों का मिम्याना, खच्चरों की घंटिका आदि आदि आँखों के सामने एक चलचित्र की भांति आ जा रहे हैं और हर की दून ट्रेक की गुदगुदी सी महसूस हो रही है |

(चन्दन घुघत्याल , गणित विभागाध्यक्ष, दी दून स्कूल)

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