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राष्ट्रवाद क्या है ? : सामान्यत: लोग यग मानने लगे है कि किसी पूजा पद्वति की शाखा को मानना ही राष्ट्रवाद है –

क्या धर्म और राष्ट्रवाद एक दुसरे के पूरक है या फिर एक के अभाव में दुसरा अधूरा है? यह विचारणीय प्रश्न है ? वैदिक धर्म में राष्ट्र की उपासना या अराधना भी धर्म का अंग है, क्योंकि राष्ट्र चेतना ही अन्त में विश्व चेतना का माध्यम बनती है क्योकि केवल धर्म ही समस्त विश्व के मानव को मानव से जोड़ सकता है ।

क्या हिन्दुत्व या हिन्दू होना ही राष्ट्रवाद है ?

बहुत से लोग यह मानते है कि हिन्दुत्व ही राष्ट्रवाद है , आध्यात्म से विहीन ब्यक्ति राष्च्रवादी नही हो सकता , इस सिद्धान्त के इसअनुसार किसी सीमा के भीतर सब कू चिन्ता , व सुख सुविधाओं का ख्ृाल रखा जाय यह विचार राष्ट्रवादी विचार है । केवल पूजा पाठ उपासना के तौर तरीके इस बात का प्रमाण है कि यह राष्ट्रवाद नही है ।हिन्दू या मुस्लिम के साथ राष्ट्रवाद को जोड़ना अप्रासंगिक प्रतीत होता है। क्योकि हिन्दू मुस्लिम कोई धर्म नही बल्कि अलग अलग सम्प्रदायों और आस्थाओं के मिश्रण को हिन्दु ृा मुसलमान कहा जाता है । जैसे हिन्दुओं मे स्वर्ग की शिक्षा देते है वैसे ही मुस्लिम मे जन्नत की । लेकिन राष्ट्र के प्रति कर्तव्य ,उत्थान ,गौरव और सुरक्षा से उनका कुछ सम्बन्ध नही होता।

राष्ट्रवाद क्याहै। ,इसका अर्थ क्या है ?

एक भौगोलिक सीमाओं में एक निश्चित देश के नागरिक, समान परम्परा, समान हितों तथा समान भावनाओं से बँधे हो और जिसमें एकता के सूत्र में बाँधने की उत्सुकता तथा समान लक्ष्य व राजनैतिक महत्त्वाकांक्षाएँ पाई जाती हों उसे राष्ट्रवाद या राष्ट्रवादी विचारधारा कहा जाता है ।
लेकिन धर्म विहीन राष्ट्रवाद प्राचीन समान परम्पराओं ,समान विचारधारा ,एक समान हितों की कड़ी में नही बँधा रह सकता फिर लोगो का एक भौगोलिक सीमाओं में रहना कैसे सम्भव होगा यदि राष्ट्रवाद का मतलब किसी समुह संगठन याऔद्योगिक घराने के हितों का पोषण है तो ऐसा राष्ट्रवाद एक बिमारी है वर्तमान मे श्रीलंका के हालात इसी राष्ट्रवाद का ममुना है जब यह सोचनीय विषय है ? ऐसे कथित राष्ट्रवाद से देश कभी भी खंड खंड हो जाऐगा।

धर्म का राष्ट्रवाद से सम्बन्ध

राष्ट्रीयता से विहीन धर्म , केवल एक सम्प्रदाय बन कर रह जाता है धर्म सामुहिक हितों का पोषक है यदि धर् केवल उपासना की बिधियो तक सिमित हो तब- जिस तरह ईसाईयत या इस्लाम सीमाओं से परे है ये ईसाईयत या इस्लाम जहं भी बहुमत में हैं वहाँ की धरती से वे भावनात्मक रूप से नही जुड़ते और उन्हे हमेशा अपने अस्तित्व के मिटने का भय बना रहता है इसी कारण वे अपना सम्प्रदाय बढाने मे यकीन करते है मुसलामानो और ईसाईयों में राष्ट्रवाद का कोई स्थान नहीं है, वे केवल अपने मत को ही बढ़ाते है जिसमें राष्ट्रवाद पीछे कही खो जाता है जबकि वैदिक धर्म में राष्ट्र की उपासना भी धर्म का अंग है, क्योंकि राष्ट्र चेतना ही अन्त में विश्व चेतना का माध्यम बनती है। जिस तरह आत्मचेतना राष्ट्रचेतना का मूल है उसी तरह राष्ट्रचेतना विश्वचेतना का मूल है।
वसुधैव कुटुम्बकम् जो सनातन धर्म का मूल मंत्र है अर्थात धरती ही परिवार है की विशाल भावन राष्ट्रवाद से ही पनपती है।
भारत देश के मूल निवासियों की दो भुजाएं हैं- एक वेद और दूसरी राष्ट्र। जो केवल एक भुजा की बात करता है वह देशवासियों को विकलांग बना देना चाहता है।
वेद केवल ईशवर उपासना की बात नही करता बल्कि राष्ट्र की मिट्टी से भी प्यार करना सिखाता है।
माता भूमिः पुत्रो अहं पृथित्र्याह ।-(अथर्व० १२/१/१२)
भूमि मेरी माता है और मैं उसका पुत्र हूँ।

मा वा स्तेन ईशत यजुर्वेद 1/1
हम पर बुरे लोगो का शासन नही होना चाहिए।
अहं भूमिमददामार्याय ।*(ऋग्वेद ४/२६/२)
ईशवर कहते है मैं यह भूमि आर्यों (श्रेष्ठों )को देता हूँ।

भारत ही नही सारे संसार पर आर्यो का अर्थात नेक धर्मात्मा परोपकारी अहिंसक…… लोगों का राज होना चाहिए दुर्जन दुष्ट हिंसक लोग यहाँ राज न कर सके सर न उठा पायें यह वेद का मूल आदेश है।
वेद केवल उपासना की बात नही करता बल्कि धरती पर श्रेष्ठ पुरूषो के राज की बात करता है यही वेद का विशाल राष्ट्रवाद है जो मानव को मानव से जोड़ता है।

उतिष्ठत सं नह्यध्वमुदारा: केतुभिः सह ।
सर्पा इतरजना रक्षांस्य मित्राननु धावत ।।
(अथर्व 11/10/1)
अर्थात् “हे वीर योद्धाओ ! आप अपने झण्डे को लेकर उठ खड़े हो और कमर कस कर तैयार हो जाओ । हे सर्प के समान क्रुद्ध रक्षाकारी विशिष्ट पुरुषो ! अपने शत्रुओं पर धावा बोल दो ।”*

वेद का राष्ट्रवाद धर्म के पथ पर ही आगे बढ़ता है।धर्म विहीन राष्ट्रवाद संगठित राष्ट्र की कल्पना मात्र ही है जिसे यथार्थ रूप नही दिया जा सकता।
उद्धारण द्वारा इसे सरलता से समझा जा सकता है जब हम कहते हैं कि हमारे देश की सीमाएँ बंगालादेश अफ़ग़ानिस्तान पाकिस्तान इरान इराक़ अरब तक फैली थी। देश और नागरिक तो वहाँ अभी विद्यमान है तो फिर हुआ क्या ? वहाँ से धर्म निकल गया। अगर वहाँ फिर से धर्म फैल जाऐ तो हमारा राष्ट्रवाद पुन: उन देशों को भी अपने आग़ोश में समा लेगा।

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