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हम अपने चारों ओर देखते है कि एक उन्मादी माहौल हमारे चारों ओर है , विवेक सुम्य लोग इस उन्माद के शिकार हो जाते है इस सम्बन्ध मे वेद हमें आगाह करते हुवे कहते है कि –
अथर्व० ८.४.२२ में मन्त्र का दूसरा पद है शुशुलूकयातुम्। – इसका अर्थ है भेड़िये की चाल। भेड़िये की दूषित मनोवृत्ति यह होती है कि वह निर्बल को तो दबाता है परन्तु सबल के आगे झुक जाता है। यह मनोवृत्ति कायरता और भीरुता की सूचक है, वीरता और शक्तियुक्तता की नहीं। वीर और पराक्रमी व्यक्ति की मनोवृत्ति होती है अत्याचारी का विरोध और निर्बल तथा निराश्रय व्यक्ति की सहायता करना। इसका विपरीत भाव भेड़िये की भावना का परिचय देता है। यह भाव जिस व्यक्ति में पनपता है उसका अधःपतन निश्चित है। जिस राष्ट्र के कर्णधारों में यह दूषित भावना पनपती है जहाँ दुर्बलों को दण्डित किया जाता है, परन्तु शक्तिशाली व्यक्ति अपनी उच्छृङ्खलता दिखाते हैं। ऐसे कर्णधारों का ही नही राष्ट्र का भी चारित्रिक अधःपतन तो होता ही है, साथ ही समूचे राष्ट्र का विनाश भी होता है। वे लोग जो आत्मबल रखनेवाले है , भेड़िये के समान मनोवृत्ति रखनेवाले व्यक्तियों से कदापि नहीं डरा करते।
महाभारत-युद्ध में इस दशा में हम तीन पात्रों को देखते हैं। कौरव अन्याय के पथ पर अग्रसर थे और पाण्डवों को उनका भाग भी नहीं देते थे। जुआ खेलकर युधिष्ठिर को हराया गया, द्रौपदी का भरे दरबार में अपमान किया गया, उनका सारा राजपाट छीन लिया गया, उनको बारह वर्ष का वनवास दिया गया, उन्हें लाक्षागृह में जीवित जला डालने का षड्यंत्र किया गया। वहाँ इसी भेड़िये की मनोवृत्ति को अपनाकर निर्बलों को सताया जा रहा था। इस सारे अन्यायपूर्ण व्यवहार को देखकर भीष्म पितामह चुप थे और उनके मुँह से इन सबके विरुद्ध एक शब्द भी नहीं निकलता था। विदुरजी महाराज धृतराष्ट्र को समझाते और फटकारते भी थे। योगिराज कृष्ण महाराज ने इस अन्यायी दल को समझाने का भरसक प्रयत्न किया। जब यह दल नहीं माना तो फिर उन्होंने इन्हें रणक्षेत्र में ललकारा। रणभूमि में उनको मृत्यु का ग्रास बनाकर धर्म की अधर्म पर, न्याय की अन्याय पर, पुण्य की पाप पर और सत्य की असत्य पर विजय करके दिखाई। पितामह का मार्ग तो अन्याय एवं पाप का मार्ग था। इसको अपनाना तो कायरता और पाप-पोषण की मनोवृत्ति का परिचय देना है। योगिराज कृष्ण का मार्ग वीरता और पुण्य-रक्षण का मार्ग था। विदुरजी का मार्ग ‘मध्य-मार्ग’ का सूचक है। भीष्म पितामह का मार्ग अपनाना तो पाप को प्रोत्साहित करना है। यदि योगिराज कृष्ण का मार्ग न अपनाया जाए तो विदुरजी का मार्ग अवश्य अपनाना चाहिए। जैसाकि उन्होंने स्वयं कहा है―
पुरुषा बहवो राजन् सततं प्रियवादिनः ।
अप्रियस्य तु पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभाः ।।
―विदुरनीति ३७.१४
अर्थात् हे धृतराष्ट्र! सदा चिकनी-चिपुड़ी बातें कहनेवाले संसार में बहुत व्यक्ति तुम्हें मिलेंगे परन्तु कड़वी और हितकार बात कहने और सुननेवाला कोई विरला ही मिलेगा।
[ ‘वेद सन्देश’ से, लेखक प्रा. रामविचार एम. ए. ]

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