97 total views

यह बडे़ ही आश्चर्य की बात है कि जब  किसी गुरु के शिष्य को दार्शनिक व गुरु को   उपेक्षित कर दिया जाय तो इसे बौद्धिक षणयन्त्र कहा जा सकता है । 1857 की क्रान्ति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले , महर्षि दयानन्द को , दार्शनिकों व आजादी के योद्धाओं की की श्रंखला में शामिल नही किया गया यह तब हुवा जब देश आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है , आर्य समाज को इस बाद के लिये आन्दोलन करना पड़ा कि महर्षि दयानन्द को दार्शनिकों की सूचि से क्यों हटाया गया। भारत मे स्वाधीनता पर सबसे पहले बोलने वाले , आजादी का महत्व समझाने वाले , आर्य संस्कृति की उत्पत्ति को शैद्धान्तिक परिचर्चा मे लाने वाले , त्रैदवाद का सिद्धान्त प्रतिपादित करने वाले महर्षि दयानन्द सरकारी स्तर पर हमेशा उपेक्षित रहे है ।

आदि गुरु शंकराचार्य का  मत अद्वैतवाद  ब्रह्म सत्य जगत मित्थ्या , एक ऐसा सिद्धान्त है जो तमाम तरह के भक्ति को केवल एक ब्रह्म की  उपासना की ओर ले जाने का प्रयास है,यही यही यह तमाम तरह के पाखंण्ड़ पर  सीधा प्रहार भी  है, केवल ब्रह्म ही सत्य है अन्य सब मित्थ्या उन्होंने प्रकृति को माया कहा जिसके मोहपास में फंसकर संसार के प्राणि अपना अस्तित्व स्वीकार करते   है, इस विचार के उनके बाद आने वाले आचार्यों ने  ईश्वर व माया को द्वेतवाद कहा   ईश्वर व प्रकृति दो सत्ताये है। इसके  उसके बाद महर्षि दयानन्द का एक सिद्धान्त आया त्रेदवाद , महर्षि दयानन्द ने स्पष्ठ किया  कि ईश्वर जीव व प्रकृति की  अनन्त  सत्ताये है ।  महर्षि ने कहा कि इस  अखिल ब्रह्माण्ड मे केवल एक ही  पृथ्वी नही है जहां  जीवन है अपितु इस पृथ्वी से परे और भी गृह है जहां जीवन है । उन्होने कहा कि प्रलय काल के बाद भी बीजरूप मे जीवन मौजूद होता है । सत्यार्थ प्रकाश में वे लोगों की तमाम जिज्ञासाओं को शान्त करते हुवे कहते है , कि प्रलय के बाद जब पुन: जीवन की शुरुवात होती है तो  तब अमैथुनीय सृष्ठि होती है एक साथ कई मनुष्य , पेड़ पौधे व जीव फिर से पनपने लगते है , जिन्हे अपनी -अपनी योनि के अनुसार स्वभाविक ज्ञान भी प्राप्त होता है ।   महर्षि कहते है कि गुण कर्म स्वभाव भी प्रकृति की ही देन है । जो बीज रूप में सब में मौजूद होता है , बीज से ही  नाना प्रकार के फलो फूलों  प्राणियों में अलग -अलग रूप रंग स्वभाव  दिखाई देताहै । वेद की अपौरुषेयता का सिद्धान्त भी प्राकृतिक , व स्वभाविक है , सृष्ठि के आरम्भ में ही आप्त पुरुषों  के ह्रदय में वेद उत्पन्न हो जाते है। यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि केवल आप्त पुरुषों के ह्रदय में ही वेद क्यों प्रकट होते है ,सबके हृदय में क्यों नही , इसका जबाब सवाल मे ही सन्निहित है गुण कर्म स्वभाव के कारण ना तो वेद सबके हृदय में अवतरित होते है  ना ही सब इसका प्रवाह बना पाते है , । महर्षि दयानन्द ने आर्य समाज का नियम बनाते हुवे कहा कि वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तक है , वेद का पढना -पढाना सब आर्यो का धर्म है ।. सवाल यह है कि क्या बिना आचार्यों के  वेद पढना व समझना संम्भव है ?  महर्षि दयानन्द को भी वेद समझने के लिये  गुरु विरजानन्द के पास जाना पड़ा ।

एक ओर महर्षि दयानन्द गुरुड़म का विरोध करके है तो दूसरी ओर गुरुमुख से ही वेद व ब्याकरण की शिक्षा भी पाते है इसका मतलब यह है कि यदि वह एक ही गुरु के चेले बने रहते तो कभी भी वेद की शरण में नही पहुंच पाते महर्षि दयानन्द कहते है  कि सच्चा गुरु व मार्गदर्शक ईश्वर ही है । सांसारिक गुरु तो कई  हो सकते है , सत्य तक पहुंचने के लिये कई गुरुओं का अनुशरण भी करना पड़ सकता है ,। गुरु हमेशा  विद्वान ही  होना चाहिये ।

  महर्षि दयानन्द  उन आलसी व प्रमादी  लोगों को चेतावनी देते है कि केवल किसी जाति धर्म में पैदा हो जाने से  वे जातीय अहंकार पालने लगे तो यह ठीक नही मनुष्य का स्वभाव , ही उसकी पहचान है ,। गुणों के अनुरूप कर्म व कर्म के अनुरूप स्वभाव ना हो तो कोई भी प्राणि अपने स्वभाविक पद व प्रतिष्ठा का अधिकारी नही रह जाता, यह ब्राह्मण , क्षत्रिय वैश्य  व शूद्र पर भी लागू होता है ,कर्म सिद्धान्त  प्रमुख है । यद्यपि किसी भी कर्म मे स्वभाविक दक्षता के लिये परिवारिक पृष्ठभूमि, पूर्वजों के गुण , कर्म स्वभाव सन्तानों मे स्वभाविक रूप से आते है  मददगार भी  होते  है , परन्तु केवल परिवारिक पृष्ठभूमि से काम नही चल सकता , कर्म भी करना ही होगा तभी फल प्राप्त होगा । कश्मीर के पंण्ड़ित अपने जातीय  अहंकार मे ही जी रहे थे , एक दिन मस्जिद से अजान के बाद शंन्देस मिला पंण्ड़ितो कश्मीर छोड़ो ,  अब जे एन यू से आवाज आ रही है ब्राह्मण बनियों भारत छोड़ो युरेशियनों भारत छोड़ो ,  संसार के जिस भू भाग को ब्राह्मणो त्याग दिया , वह स्थान सनातन ,ज्ञान वेद , वेदांग उपनिषद , कल्प ब्याकरण , आदि विविध ज्ञान व प्राचीन धरोहरों से विमुख हो गया । इसीलिये महर्षि ने कहा कि कर्म से ही वर्ण धर्म  सुरक्षित रह सकता है । संसार चार पीलरों पर खड़ा है इन चारों पीलरों को बराबर शक्ति प्रदान  करनी चाहिये यदि एक भी पीलर कमजोर पड़ा तो  ईमारत लड़खडा जायेगी ।।

आज समाकन धर्म हिचखोले खा रहा है , केवल भारत में ही  प्रमुखता से अस्तित्व मे है ,  परिवार नियोजित करने से भविष्य मे स्वत: ही अल्संख्यक होने के कगार पर  है ,ऐसे मे जो सनातन छोड़कर चले गये उन्हे गले लगाना होगा स्वधर्म में मिलाना होगा । शंकर प्रजाति भी एक दिन शुद्ध  हो जायेगी , महर्षि दयानन्द ने शुद्धि का विचार सनातन धर्म को दिया । आज बहुत से आचार्य  शुद्धि कार्यक्रम अपना रहे है । अब सनातन को चारवाक से ज्यादा खतरा है बौद्ध  का आलंम्बन कर नवबौद्ध नास्तिक चारवाक के रूप में सामने आ रहे है  सनातन की  धार्मिक पुस्तकों जला रहे है ।

गणतन्त्र व स्वाधीन राष्ट के पहले उद्घोषक

महर्षि दयानन्द वह राष्ट सन्त है जिन्होंने गुलाम भारत मे सबसे पहले यह नारा दिया बिदेशी राजा कितना ही अच्छा बो वह स्वदेशी राजा से बेहतर नही हो सकता , सत्यार्थ प्रकाश को पढ कर ही देश में स्वतन्त्रता आन्दोलन समाज सुधार पाखण्ड़ के खिलाफ आन्दोलनो की एक शंखला संगठित हुई , भारत मे स्वाधीनता आन्दोलन मे बौद्धित समाजिक , कई आयाम जुड़े देश मे 80% स्वतन्त्रता सेनानी आर्य समाज की पृष्ठभूमि से आये आज कृतज्ञ राष्ट हणकन्त्र दिवस मना रहा है , महर्षि दयानन्द के साथ गी आजाद भारत के संविधान सभा व समितियों के हर सदस्य को नमन

Leave a Reply

Your email address will not be published.