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पहले मूर्ति बनाई फिर प्राण प्रतिष्ठा कर पूजी गई प्रतिमाओं रो हलुवा पूरी फल -फूल मिठाई बतासे ना जाने किन किन पदार्थों सॆ 56 भोग लगाना , फिर गणेश चतुर्थी के दिन इन प्राण प्रतिष्ठित मूर्तियों का प्राण हरण कर समुद्र व नदों मे फैक देना , यह कैसी भक्ति है हमें क्या सन्देश दे रही है ,यह एक सोचनीय विषय है ।

गणेश चतुर्थी को नदियों समुद्र तटों पर हजारों मूर्तिया बिसर्जित होती है , जिनको भगवान समझ कर पूजा गया उनकी ये दशा देखकर , क्या इनके प्रति आस्था बनी रह सकती है , जिस ईश्वर को हम सर्वशक्तिमान करहते है , उसी की प्रतिकृति बनाकर , फिर उसमें प्राण प्रतिष्ठा करने वाला मनुष्य ईश्वर को इतना लाचार कर देता है कि फिर प्राण हरण कर , समुद्र मे फैक आता है , ताकि वह सडने गलने व प्रकृति के थपेड़े खाये, । वेद स्पष्ठ करते है न: तस्य प्रतिमा अस्ति ,उस ईश्वर की कोई प्रतिमा नही है , पर जो कण -कण में ब्याप्त परमात्मा की मूर्ति बनाकर उसमें प्राण प्रतिष्ठा कर पूजने के बाद नदियों का प्रदुषण बढा देते है ,उनमे प्रतिष्ठित मूर्ति के प्राण वापस लेने की क्षमता भी है क्या ?

पहले तो ठोस अवशिष्ट पदार्थों से मूर्ति बनाना ही गलत है , जिस काल खण्ड़ मे बिसर्जित करने योग्य प्रतिमा बनाने की प्रथा चली उसी दौर में यह भी तय किया गया कि इन्हें विना रासायनिक लेप के ही तैयार किया जायेगा जैसे केले के खम्भों से ,बनस्पतियों से गोवर से , पर बर्तमान मे सिमेन्ट से बनाई गई ये मूर्तिया , बिसर्जन के योग्य को कतई नही है । इनसे ना तो आध्यात्मिक सुख मिलेगा ना ही शान्ति ,

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