87 total views

भक्ति बनाम तर्क पर आधारित राष्ट्रवादमहर्षि दयानन्द के जन्म के दो सौ वर्ष पूर्ण होने पर


आर्य सभ्यता दुनिया की वह पहली विचारधारा है ,। जिलने सम्पूर्ण विश्व को एक परिवार कहा है वसुधैव कुटुम्बकम् । व लोगो के आचार ब्यवहार मे परिवर्तन कर संसार को श्रेष्ठ परम्पराओ की ओर ले जाने का संकल्प किया । कृण्वन्तो विश्वम् आर्यम् इसका प्रमुख सिद्धान्त है महर्षि दयानन्द ने दुनिया को बताया कि वेद मत का ह्रास होने के कारण , दुनिया मे मत मतान्तर फैलाव , स्वभाविक था । महर्षि दयानन्द गुलामी , स्त्रीहिंसा , अशिक्षा के लिये इन्ही भ्रामक मतमतान्तरो को जिम्मेदार मानते है , वे राष्ट्रवाद के प्रवल समर्थक थे । उनका राष्ट्रवाद वैदिक परम्पराओ के दायरे मे है । वे वेद मत के समर्थक व प्रचारक थे । अपने आप मे सुधार करते हुवे वे बिगडे लोगो को सुधार कर अपने मे मिलाने पर यकीन करते थे । शास्त्रार्थ की परम्परा को पुनर्जीवित करते हुवे महर्षी दयानन्द ने अपने जीवन काल मे कई शास्त्रार्थ किये । वैदिक मत को स्थापित किया ।महर्षि , धर्म सस्कृति को रुढिगत परम्पराओ से बाहर निकाल कर सार्वजनिक परिचर्चा का बिषय बनाना चाहते थे , । इसी के लिये उन्होने सत्यार्थ प्रकाश लिखा । उसमे उन्होने सही व गलत को समझाने का प्रयास करते हुवे कहा कि सोच व समझ के आधार पर यदि सत्यार्थ प्रकश मे विसंगति हो गई हे तो आर्य जन उसमे सुधार कर ले । अव तक भाषा व वर्तनी की असुद्धियो को दूर करने के प्रयाश भी हुवे है ।
महर्षी का राष्टवाद व वर्तमान मे प्रचारित राष्ट्रवाद मे बहुत अन्तर है। महर्षि दयानन्द सजग , सार्वभौमिक , न्याय ब्यवस्था पर आधारित जिम्मेदार राष्ट्रवाद की वकालत करते है वे कूप मण्डूप भक्ति पर आधारित राष्ट्रवाद के बजाय तर्क व नीति पर आधारित राष्टवाद की वकालत करते है महर्षी ने प्रथम समुल्लास मे , ईश्वर के प्रति ब्यापक समझ बनाने की कोशिस करते हुवे कहा है कि ईश्वर के अनन्त नाम , अनन्त गुण व अनन्त स्वभाव के आधार पर अनन्त नाम हो सकते है उन्होने ईश्वर के सौ नामे की ब्याख्या करते हुवे , उदाहरण सत्यार्थ प्रकाश मे दिये है ।
फिर उन्होने अगले समुल्लास मे सन्ताने के पालन पोषण , माता पिता के कर्तब्य , तीसरे समुल्लास मे शिक्षा के वास्तविक स्वरूप , पांचवे समुल्लास मे बानप्रस्थ व सन्यास की आवश्यकता परलजोर दिया है । छटा समुल्लास राष्ट्रीय एकता तथा सुरक्षा हेतु वैदिक राष्ट पर आधारित है । आज के आर्यो के लिये यह प्रमुख कार्यक्रम है विविधता के समेटते हुवे नीति ब्यवस्था रम्परा के लिये वैदिक राष्ट हेतु प्रयत्नशील होना आर्यो की जिम्मेदारी है । पर जब मै आर्यो के देखता हू तो बडी निराशा होती है । अग्निबृत नैष्ठिक जैसे कुछ बिद्वान आर्य है जो उम्मीद जगाते है पर , उनकी भी आर्य जगत मे बडी उपेक्षा है ष आर्य जन सिद्धान्त के बजाय चापवूसी मे लगे है जो ऋषि परम्परा नही है । ऋषि मे इसे भाटचारण कहा है ।
लातने समुल्लास मे उन्हेने वेद के विभिन्न पहलुओ पर प्रराश डाला है । वाल्तव मे आरम्भ से ही वह वेद रे महत्व को ही रेखांकित करते रहे है । आठवे संुल्लास मे सृष्ठि की उत्पत्ति नवम् मे मुक्ति बिषय दशवे मे खानपान व आचरण को उन्होने महत्व दिया । अन्त के चार समुल्लास नास्तिक व पाखण्डपूर्ण मतो के खण्डन मे है । सत्यार्थ प्रकाश , ऋग्नेदादिभाष्य भूमिका , गो करणानिधि ,व आर्य समाज के दस नियं इस लक्ष्य को पाने केलिये एक कार्यक्रम है । यही कार्यक्रं महर्षी का राष्टवाद है । इसके लिये पहला आचरण साम , दूसरा दाम तीसरा दण्ड चौथा भेद की नीति है ।
आज आर्य समाज महर्षी दयानन्द के वैदिक राष्ट्रवाद की जगह अन्ध राष्ट्रवाद का पोषण कर रहा है । यदि अन्ध राष्ट्रवाद की जगह वैदिक राष्ट्रवाद की बात नही हुई तो वह दिन दूर नही जब बिदेशी शान्ति स्थापना के माम पर भारत मे अपनी अपनी सेमाये भेजकर , दमनचक्र चलाईगे । हम उनका मूक समर्थन करने के लिये विवस हो जाईगे ।

Leave a Reply

Your email address will not be published.